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________________ 1235 80. 11.2] महाका-पुष्फयंत-विरायउ महापुराणु अमरविलासिणिणच्चणतंडवि जंपिउ केण वि तह सहमंडवि। संपइ देहिदेहहयमयजरु' जंबूदीवभरहि को जिणवरु। केवलणाणसमुग्गयण यणे भणिउं जिणेण विणासियमयणे। वंगदेसि सुसुभरवसुकविलाह णववणणीलहि गयरिहि मिहिलाहि। उप्पण्णउ अच्छइ जगसंकरु णमिणामंकु भावितित्थंकरु । पवरविमाणहु हिमयरधामहू अवइपणउ अवराइयणामहु । भावाभावई चित्तई जाणइ देवविइण्णई सुक्खई माणइ । धादइसडि दीवि तउचिण्णउं दोहि मि देवत्तणु संपण्ण। पढमि सग्गि सोहम्मि मणोहरि रयणकिरणजालंचियसुरहरि । तं णिसुणेप्पिणु मइमल धोयहूं अम्हई आया तुह पय जोयहुँ। तं हियउल्लइ धरिवि गरेसरू णयरि पइठ्ठ ललियगन्भेसरु । तहु जिणवरहु जम्मसंबंधई सुयरेप्पिणु णियभवई सचिंधई। पत्ता--चितइ वसुहाहिउ णियहियइ बुद्ध सबोहिइ बुद्धः॥ जगि जीउ जहिं जि हुउ तहिं तहिं जि रमइ सकम्मणिबद्धउ ॥10॥ 11 दुबई—हिंडइ भवसमुद्दि अण्णाणविलुटियणाणलोयणो ।। पुत्तकलत्तमित्तवित्तासापासणिरुद्धचेयणो ॥छ।। 15 सिनियों के नृत्य का विस्तार हो रहा है, ऐसे उनके सभा-मण्डप में किसी ने पूछा-"इस समय जम्बद्वीप के भरतक्षेत्र में शरीरधारियों के कामज्वर को नष्ट करनेवाले कौन जिनवर हैं? जिसने कामदेव का नाश कर दिया है ऐसे केवलज्ञान से उत्पन्न नेत्र वाले अपराजित ने कहाबंग देश की पुष्पधूलि से अत्यन्त कपिल, नववन से नीली मिथिला नगरी में उत्पन्न, विश्व के लिए सुख देनेवाले नमि नाम के भावि तीर्थकर हैं। चन्द्रकिरण के समान धामवाले अपराजित नाम के विशाल विमान से अवतीर्ण वह विचित्र भाव-अभावों को जानते हैं, देवों द्वारा प्रदत्त सुखों का भोग करते हैं। धातकीखण्ड द्वीप में दोनों ने तप ग्रहण किया था और दोनों ने प्रथम स्वर्ग सुन्दर सौधर्म के रलकिरणों के जाल से अंचित देवविमान में देवत्व प्राप्त किया था। यह सुनकर हम दोनों अपना मतिमल धोने और तुम्हारे चरणकमल देखने के लिए आए हैं। यह बात अपने हृदय में धारण कर, सुन्दर गर्वेश्वर राजा ने अपनी नगरी में प्रवेश किया। उन जिनवर के संबंधों और चिह्न सहित अपने जन्मान्तरों की याद कर पत्ता-राजा विचार करता है कि जानकार ही जानकार को सम्बोधित कर सकता है। यह जीव जग में जहाँ भी उत्पन्न होता है, अपने कर्म से निबद्ध होकर वहीं रमण करता है । जिसका ज्ञानरूपी नेत्र अज्ञान से बन्द है तथा पुत्र-कलत्र-मित्र और वित्त के आशारूपी 2. AP देहि देउ। 3. AP चितइ। 4. AP 43 । 5. A तहि हिय । 6. P सुमरेप्पिणु । (11) 1. A चितासापास।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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