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________________ 2361 महाकवि पुष्पबन्त विरचित महापुराण 180.11.3 इय आयंतु देउ उम्मोहिउ सारस्सयसुरवरहिः संबोहिउ । तणयहु वरसरीरसुहकारिणि दिग्ण तेण सधराधर धारिणि । सुप्पहणामह पट्ट णिबंधिवि धम्मझाणु हियउल्लइ संधिधि। अमरवराहिसेउ पावेप्पिणु धणु परियण तणु जिह मिल्लेप्पिणु । सुमहिउ सयमहेण महिरूढउ उत्तरकुरुसिवियहि आरूढउ । गउ आसाढमासि घणसामलि अस्सिणिरिक्खि पक्खिससिउज्जलि । दसमइ दिवसि मुहुत्ति पहाणइ फलपविइ चित्तवणुज्जाणइ । लइय दिक्प सिद्धग गलने बदनरमहिमोह मयंतें । मुक्कंबरइ' विलुंचियकेसह पहु आलिगिउ दिक्खावेसइ। लइयएण छ?णुववासें सहं सुसीलखत्तियहं सहासें। इंदचंदणाइंदणमंसिर मणपज्जवणाणेण विहूसिउ। वीरणयरि दतहु परणाहहु बीरलच्छिसुपसाहियबाहु। घरि पारणउं कयउं परमेसे सुरकयपंचच्छरियविलासें । पत्ता–णववरिसई दुबरु तउ चरिवि तिणि वि सल्लई वज्जियई। रसगंधफाससुइलोयण पंचिंदियई परज्जियई 111 12 दुवई-बसुहं हिंडिऊण गउ पुण रवि तं दिक्खावणं धणं ।। कुसुमियफलियल लियतरुसाहाकीलियहसबरहणं ।छ।। पाश में निरुद्धचेतन यह जीव संसार-समुद्र में भ्रमण करता है यह विचार करते हुए देव मोह से दूर हो गये। लोकांतिक देवों ने आकर उन्हें सम्बोधित किया। श्रेष्ठ शरीर का शभ करनेवाली सधराधर धरती उन्होंने अपने पुत्र के लिए प्रदान कर दी। सुप्रभ नामक पुत्र को पद बाँधकर हृदय में धर्म का संधान कर, देवों द्वारा वर-अभिषेक पाकर, धन और परिजन को तृण की तरह त्यागकर, इन्द्र के द्वारा पूजित धरती पर प्रसिद्ध, उत्तर कुरु शिविका पर आरूढ़ होकर, आषाढ माह के कृष्ण पक्ष की दसवीं के दिन आश्विन नक्षत्र में, फलों से विनम्र चित्र-वन उद्यान में सिद्धों को नमस्कार करते हुए, घर, पुरवर और धरती का मोह छोड़ते हुए प्रभु मुक्ताम्बर (मुक्तवस्त्र) वाली और बिलुचित केशवाली दीक्षा रूपी वेश्या के द्वारा आलिगित किए गए। छठा उपवास ग्रहण करते हुए, एक हजार सुशील क्षत्रियों के साथ, इन्द्र, चन्द्र और नागेन्द्रों के द्वारा वन्दनीय, मनःपर्ययज्ञान से विभूषित, वीर नगर में वीरलक्ष्मी से सुप्रसाधित-बाहु राजा दत्त के घर परमेश्वर ने देवी द्वारा किये गये पांच आश्चर्य विलास के साथ पारणा की। पत्ता-नौ वर्षों तक दुर्धर तप कर उन्होंने तीन शल्यों को छोड़ दिया । रस, गन्ध, स्पर्श, श्रति और लोचन-पांचों इन्द्रियों को जीत लिया गया । धरती पर विहार कर वह पुनः उसी दीक्षा-वन में गए कि जहाँ कुसुमित फलित वृक्षों की 2.AP मा रस्सयसुरेहि । 3. A मुक्क्रबरपविलुचिय° । 4. AP°णायद । 5. AP दुसरु चरिवि तउ ।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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