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________________ 881 [72.5.6 महाकवि पुष्पदन्त शिरचित महापुराण सयचंन्धायपरियलियफलि खणि दीसइ चंपयचयतलि। खणि वेल्लिणिहेलणि पइसरह अण्णण्णपएसहि अवयरइ। ओहच्छई' अइकोड्डावणउ लइ माणमि णयण सुहावणउ । इय चिंतिवि राहत संचरइ पसु पुणु धरणास तासु करइ। धरिओ वि करग्गह पीसह कदि देसायणु कादि णीसरइ। णि ६इयहु किं करि चडइ णि हि कहि कवडहरिणु कहिं बंधविहि । घत्ता---गज गयणुल्ल लिउ मिगु णं कुवाईहत्थहु रसु॥ थिउ दसरहतणउ समणीससंतु विभियवसु ।।4।। भयणभूमिआयासगामिणो' मंतिणा वि कहियं ससामिणो। देवदेव जयलच्छिसंगमो वंचिओ रहूरायपुंगमो। ता ससक्क तेल्लोक्क'रामणो' राम एव रूवेण रावणो । कासकुसुमसंकासवेहो। चावधारि णं सरयमेहओ। कसणवाससोहियणियंनओ हत्थणिहियमणिमयसिलिबओ । झत्ति जणयतणयासमीवयं आगओ कयाणंगभावयं'। हैं ऐसे चंपक और आम्रवृक्ष के नीचे एक पल में दिखाई देता है, एक क्षण में लताघरों में प्रवेश कर जाता है, तथा दूसरे-दूसरे प्रदेशों में अवतरित होता है। अत्यन्त कुतुहल उत्पन्न करने वाला वह लो यह बैठा है, लो नेत्रों के लिए सुहावने लगने वाले इसे मैं मानता हूँ। यह विचार कर राम संचरण करते हैं । मृग उनमें पकड़ जाने की आशा उत्पन्न करता है। पकड़े जाने पर भी वह हाथ की पकड़ से छूट जाता है। कहाँ वेश्याजन और कहाँ दरिद्रों की रति ? भाग्यहीन के हाथ क्या निधि चढ़ती है ? कहाँ कपटमृग और कहाँ उसके पकड़ने की विधि ? घसा-आकाश में उछलता हुआ मृग चला गया, मानो कुवादी के हाथ से पारद चला गया हो। विस्मय से विस्मित राम, श्रम से श्वास लेते हुए रह गए। (5) ___ मंत्री ने नक्षत्रों की भूमि, आकाश से जाने वाले अपने स्वामी से कहा- हे देव विजय और लक्ष्मी के संगम रघुराजश्रेष्ठ को वंचित कर लिया गया है। तब इन्द्र सहित तीनों लोकों को रुलाने वाला रावण ही राम बन गया। कांस पुष्प के समान उज्ज्वल शरीर वाला धनुषधारी, जैसे शरद मेघ हो, मृग चर्म से उसका नितम्ब भाग शोभित था। जिसने अपने हाथ में मणिमय तीर धारण कर रखे थे, ऐसा वह (रावण) शीघ्र ही जनक तनया सीता देवी के पास आया। शत्रुओं के मान को नष्ट करने की शक्ति वाले उस दुश्चरित्र ने काम की अभिलाषा से 4. AP 'परिगलिय। 5. P°चूययलि 1 6. P पवेसहि । 1. P इहु अच्छइ। 8. A णिदबहु कहि करि; P णिइवह करि कहिं। (5) 1. A गमणभूमि'; T भनणभूमि | 2, A वणि वइ रहवंसपुगमो; P बणि पठ्ठ रहुक्सगमो। 3. A ससंक°14. Pइलोषक 15. AP रावणो 16.A "सिलंबओ। 7.A तावयं
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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