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________________ 82] महाकवि पुष्पवन्तविरचित महापुराण तिरुहू तिह परसहिंडण सणाहा रहु afses वुड्ढयालि भिडि किज्जर जिणवरिदभासिज तउ रिसाव अट्टियपंजरु जहिं इंदियई पण इच्छियकामई कर कपि विकुलविप्पिउ जिह । महिल ण मुच्चई कारागारहु | उ महिलत्तणु किं मग्गिं । तं मग्गिज्जइ जहि उ संभउ । तं मग जहिं ण कलेवरु । जहिं सुब्बंति ण जारहं णामई । तं सुणिव वुद्धहि मउलिउं मुहं । भर' सीलु को खंडइ सीयहि । एह विप्पु गुणवंतहि । पासहि हिँडिदि वर मरेब्वजं । ह्यरि चंचलगय गयणगणइ ॥ for afणयरणिम्मलि कणयधरायलि लंकाहिवघरगणइ" ||20|| मज्जिद मोक्खमहासुहुं हियवउं भिण्णउं तक्खणि एयहि जाणियतच्चहि सच्चहि संतहि हि मई घुत्तिइकाई करेव्वर्ड पत्ता - इय चितिवि सुंदरि णिवसें [71.20, 3 21 विवि ताइ विष्णविउ दसासहु । जसपसरणयर' जगपंकथरवि । जद ठाणाउ चलई धरणीयलु । 5 10 अंजणसाम लच्छिविलासहु देव दियंतदतियंतच्छविप' इच्छइ सा जई सिहि सीयलु उसी प्रकार वृद्धापन में पुत्र रक्षा करता है, जिससे कि वह कुल के लिए अप्रिय कुछ भी नहीं कर सके। दूसरों के अधीन घूमने वाली महिला स्वजनों के आभार रूपी कारागार से नहीं छूट पाती । वृद्धा, तुने बुढ़ापे में भाग्यहीन महिलापन क्यों माँगा ? इस महिलापन में आग लगे । जिनेन्द्र के द्वारा बताए गए तप को करना चाहिए और वह मांगना चाहिए कि जिसमें फिर जन्म न हो, वह माँगना चाहिए कि जहाँ रक्त रस को धारण करने वाला अस्थिपंजर से युक्त शरीर न हो, जहाँ इन्द्रियाँ कामनाओं की इच्छा करने वाली नहीं है, जहाँ जारों का नाम सुनाई नहीं देता -- ऐसे उस मोक्ष रूपी महासुख को माँगना चाहिए। यह सुनकर वृद्धा का मुख मैला हो गया । उसका हृदय तत्काल विदीर्ण हो गया। वह सोचती है कि सीता के शील का खंडन कौन कर सकता है ? जहाँ तत्त्व को जानने वाली सच्ची शांत और गुणवती सीता देवी का यह विकल्प है, वहाँ मेरे द्वारा क्या धूर्तता की जाएगी ! मैं केवल बंधनों में पड़कर भ्रमण कर मर जाऊँगी । धत्ता - यह विचार कर वह चंचल सुन्दरी विद्याधरी एक पल में आकाश के माँगन से गई और मणि किरणों से निर्मल, स्वर्ण धरातल वाले लंकानरेश के प्रांगण में जा पहुँची । (21) अंजन की तरह श्याम, लक्ष्मी के विलास दशानन को प्रणाम कर उसने निवेदन कियाहे दिग्गज के दाँतों की छवि के समान यश के प्रसारण करने वाले तथा विश्व रूपी पंकज के रवि है वेब, यदि आग शीतल हो जाए तो वह आपको चाह सकती है। यदि धरणी-तल अपने 5. A बुडि 6. A भगद; T भर चिन्तयति । 7. 4 धुलें। 8. P णिविसें । 9. AP अंगण । ( 21 ) 1A दंत हो छषि । 2. A पसरणजगवणपंकय": P पसरणपर 3 A इच्छा पई ज सा; P इच्छ प सा जइ ।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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