SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आलोचनात्मक मूल्यांकन हिन्दी साहित्य के प्रथम प्रामाणिक इतिहासकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल प्राकृत की अन्तिम अपभ्रश अवस्था से हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ मानते हुए, उक्त अपभ्रंश को प्राकृताभास हिन्दी कहने के पक्ष में थे। उनके अनुसार, तान्त्रिकों और योगमार्गी बोडों द्वारा रचित पद्यों (दोहों) में यही भाषा प्रयुक्त है । इसके अलावा, इस अपभ्रश और 'पुरानी हिन्दी' का प्रचार शुद्ध साहित्य या फास्य-रचनामों में भी 1050 से 1375 तक (भोज से लेकर हम्मीरदेव तक) पाया जाता है। इस प्रकार सवा तीन सौ वर्ष के इस काल के प्रथम डेढ़ सौ वर्ष के भीतर लिखित रचनाओं को स्पष्ट प्रवृत्ति का निश्चय करना कठिन है । अतः यह अनिर्दिष्ट लोकप्रवृत्ति का काल है। उसके बाद मुसलमानों के आक्रमण शुरू होने पर उनकी प्रतिक्रिया से हिन्दी साहित्य में एक प्रति उभरती है. जो काफी बंधी हुई है। रीति शृगार आदि के अलावा यह प्रवृत्ति चारण या राजाश्रित कवियों द्वारा निबर अपने बाश्रयदाता राजामों के पराक्रमपूर्ण चरितों या गाथाओं में लक्षित होती है। यह प्रबन्ध-काव्य परम्परा ही रासो-काव्य या वीरगाथा काम्प कहलाई। कुल मिलाकर 'भाविकाल' के दो भेव है!अनिदिष्ट काल 2. बीर-गापा या रासो काल । भाषा के बारे में शुक्ल जी का कहना है कि इन काव्यों की भाषा परम्परागत है, उस समय की बोलचाल की भाषा नहीं है। उसमें प्राकृत की रूढ़ियाँ हैं । वह तत्कालीन बोलचाल की भाषा से लगभग दो सौ वर्ष पुरानी भाषा है। आदिकाल के मन्तर्गत शुक्ल जी, अपभ्रंश (देवसेन, पुष्पदन्त, सिखों की रचनाओं, हेमचन्द्र बारा उन्धुत दोहों की भाषा) और देशी भाषा (रासो काव्यों की भाषा) का उल्लेख करते हैं। आचार्य शुक्ल ने अपने उक्त विचार 1929 में उस समय व्यक्त किये पे जब अपभ्रंश साहित्य प्रकाश में नहीं आ परन्तु 1960 तक अपभ्रश के स्वयंभू और पुष्पदन्त जैसे शीर्ष कवियों की रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी थी। फिर भी डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनका विवार इसलिए नहीं किया क्योंकि यह साहित्य हिन्दी प्रवेश में लिखा गया साहिम नहीं है । बड़े विस्तार से उन्होंने इस बात का विचार किया है कि ऐसा क्यों हुआ। उनका कहना है कि गाहड़वार राजाओं ने (वैदिक धर्म मानने के कारण) देश्यभाण के कवियों को आभय नहीं दिया; वूसरे, इस प्रदेश में वर्जनशील ब्राह्मण समाज का प्रभाव था। हो सकता है उनका कहना सही हो, परन्तु इससे उपलब्ध साहित्य के अध्ययन न करने का औचित्य सिद्ध नहीं होता । क्योंकि भाषा मानसून की तरह, अपर ही ऊपर उड़कर नहीं निकल जाती, किनारों को छूने के लिए उसे मध्य में से गुजराना होता है। मध्यदेश उसमे अछूता नहीं रह सकता, वह अछूता रहा भी नहीं । सूर, तुरूसी, कबीर, जायसी की रचनाएं इसका सबूत हैं । आखिर बज और अवधी एकदम पैदा नहीं हो गई । यषि गॉ. द्विवेदी अध्ययन करते तो कम से फम उन्हें इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना पड़ता कि हिन्दी साहित्य का आविकास विरोधों और स्वतो ववतो म्याघातों का काल है । या उन्हें यह नहीं लिखना पड़ता कि 'इस युग में एक भोर श्रीहर्ष जैसे बड़े-बड़े कवि हए, जिनकी रचनाएं अलंकृत काव्य-परम्परा की सीमा पर पहुँच गई । दूसरी ओर, अपभ्रश में ऐसे कवि हए जो अत्यन्त सरल और संक्षिप्त शब्दों में अपने मनोभावों को प्रकट करते थे। यह बात 'नैषधकाम्य' के श्लोकों और 'सिद्ध-हेम-व्याकरण' में आये दोहों की तुलना से स्पष्ट हो जाएगी।'
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy