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________________ 2161 महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण [79,51 सुमणोहरणामि सयावसंतिः अण्णहि दिणि णंदणवणवणंति । सिरिसिरिहररामणराहिवेहि सिवगुत्तु जिणेसरु दिछ तेहि । वंदेप्पिण पुच्छिउ परमधम्म जिणु कहइ उयारवियारगम्मु । मिच्छत्तासंजम चउकसाय छंडतहं सुहु रायाहिराय। एयहिं ओहट्टइ गाणतेउ ए दुस्सदुद्दमबंधहे। बंधेण कम्मु कम्मेण जम्म जम्मेण दुक्नु सोक्खु वि सुरम्म। इंदियसोखें पुणु पुणु विसालु संपज्जइ जीवहु मोहजालु । मोहें मुज्झइ संसारि भमइ अण्णण्णहि देहि देहि रमइ । णारयतिरिक्खदेवत्तणेहि बहुभयभिषणमणुपत्तहिं । संसरइ मरइ णउ लह्इ बोहि ण कयाइ वि पावइ जिणसमाहि । सम्मतु ण गेण्हइ मंदमूढ लोइयवेइयसमएहि छूछ। आसंकखविदिगिछवंतु जडु मिच्छादिछि पसंस वेंतु। धत्त... परिदद गिदणिज्ज नहि भत्ताउ ।। राहब जीवगणु जगि पउरु विहुरु संपत्तउ॥5॥ 10 (5) दूसरे दिन, जिसमें सदा वसंत रहता है ऐसे मनोहर नामक नंदन वन के भीतर उन श्रीविष्णु और श्रीराम (लक्ष्मण और राम) ने शिवगुप्त नामक जिनेश्वर के दर्शन किए। उनकी वन्दना कर उन्होंने परमधर्म पूछा। उदारविचारों से गम्य जिनेश्वर कहते हैं राजाधिराज ! मिथ्यात्व, असंयम और चार कषायों को छोड़नेवालों को सुख होता है। इनसे ज्ञान का तेज कम होता है। ये असह्य और दुर्दम बन्ध के कारण हैं। बन्ध से कम होता है, कर्म से जन्म होता है, जन्म से सुरम्य सुख और दुःख होता है। इन्द्रियसुख से फिर-फिर, जीव को विशाल मोहजाल पैदा होता है। मोह से मूर्छा को प्राप्त होकर संसार में परिभ्रमण करता है। और फिर शरीरधारी अन्य-अन्य शरीरों से रमण करता है। नरक, तिथंच और देवत्व के अनेक भेदों से भिन्न मनुष्य शरीरों में संसरण करता है, मरता है। न तो ज्ञान प्राप्त करता और न कभी समाधि को पाता । मन्द-मुर्ख सम्यकत्व ग्रहण नहीं करता। वह लौकिक और वैदिक मतों से व्याप्त रहता है। आशंका, आकांक्षा और घृणा से युक्त जड़ मिथ्यादृष्टि की प्रशंसा करता हुआ, पत्ता-जो भला है उसे छोड़ता है और जो निंदनीय है उसका भक्त बनता है। हे राघव, जीवसमूह जग में प्रचुर दुःख को प्राप्त होता है ।।511 (5) 1. A सयवसति । 2. P ओयार' । 3. A बहुभोम । 4. AP म ।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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