SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक्कूणहत्तरिम संधि मुणि सुव्यजिणतित्थि तोसियसुररामायण || हरिहलहरगुणथोत्तु जं जायचं रामायण || ६ || (1) foresafaree उरहमि निव्वाहमि पर भत्थिमर्जु कलिका सुट्टु गलस्थिय सामग्गिण एक्कवि अस्थि महु कइराउ सयंभु महायरिज चमुचयारिमुहाई जहि महु एक्कु तं पहुं खंडिय भई छंदु लक्खणु भावियउं इतंपि किं पि एवहि कहमि । परिपालमि पडिवण्णउं थियउं । जणु युज्जणु अण्णु वि दुत्थियउ । फिर कवण' लीह चिरकइहिं' सहुं । सो सयणसहास हि परियरिउ । सुकइतणु सीस काई तहिं । विहिणा पेसुण्णउं मंडियजं अप्प जणि हासउ पावियउ । 5 10 उनहत्तरवो संधि मुनिसुव्रत जिन तीर्थंकर के काल में देवांगनाओं को संतोष देनेवाला तथा नारायण और बलभद्र के गुणों के स्तोत्र से युक्त जो रामायण हुआ । (1) अपनी बुद्धि के विस्तार से नहीं चूकते हुए, मैं उसे कुछ इस समय कहता हूँ। मैं भरत के द्वारा अभ्यर्थित का निर्वाह करता हूँ, और जो मैंने स्वीकार किया है उसका मैं पालन करता हूँ । मैं कलिकाल से अत्यन्त पीड़ित हूँ। लोग दुर्जन हैं, और मैं हीन स्थिति में हूँ । मेरे पास एक भी सामग्री नहीं है । मैं प्राचीन कवियों की पंक्ति में कैसे आ सकता हूँ ? एक महा आदरणीय कविराज स्वयंभू थे जो हजारों स्वजनों से घिरे हुए थे। एक चतुर्मुख थे, जिनके चार मुख थे। ऐसी स्थिति में मैं अपना सुकवित्व किस प्रकार कहूँ ? मेरा एक ही मुख है। वह भी खंडित । विधाता ने मेरे साथ दुष्टता की। न तो मैंने छंदशास्त्र का और न लक्षणशास्त्र का विचार किया है । मैंने लोगों में उपहास पाया है। यद्यपि पण्डितों के हृदय में मैं प्रवेश नहीं कर पाऊँगा फिर भी 11 P बुद्धि विस्थरु। 2. P भरहअम्मत्थिय। 3. P क्रमण । 4. Ap चिरु कहि । 5. A सुयणसहासें; P सुयणसहासेहि 6. P सीसर ।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy