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________________ 68. 11.11]] [11 महाका-पुष्फयंत-विरइया महापुराणु विसहेवि' भीम रविकिरणताउ विद्ध सिवि मिच्छामोहभाउ। तवदंसणणाणचरित्तरिद्धि आराहिवि गउ सव्वत्थसिद्धि । पत्ता-हरिसेणहु भरहाहिवहु अहमिदत्तणु तं तह सिद्धउं ।। दिवसोक्खसंदोहयरु जंण पुप्फदंतेहि वि लद्धउं ।।।1।। 10 इय महापुराणे तिसट्ठिमहापुरिसगुणालकारे महाभश्वभरहाणुमण्णिए महाकइपुप्फयंतविरइए महाकव्वे मुणिसुब्बयणिवाण हरिसेण कहतर णाम अट्ठसट्ठिमो परिच्छेओ समत्तो ।।68॥ कर मिथ्या मोहभाव का नाश कर, तप-दर्शन-ज्ञान और चरित्र ऋद्धि की आराधना कर सर्वार्थसिद्धि को पा गया। घत्ता-हरिषेण और उस भरत राजा को वह अहमेन्द्रत्व सिद्ध हुआ, दिव्य सुख समूह को करने वाला जो सुख नक्षत्रों को भी प्राप्त नहीं हो सका ।।11॥ प्रेसठ महापुरुषों के गुणालंकारों से युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभव्य भरत द्वारा अनुमत महाकाव्य का मुनिसुव्रत-निर्वाण हरिषेणकथांतर नाम का अड़सठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ॥6811 4.P विसदेषि मुणिवरु रवि। 5. A 'णियाणगमणं। 6. P adds another पुष्पिकाः मुणिसुव्वपजिणपसमचक्कट्टि हरिसैण एतच्चरियं सम्मत्तं; K gives it in the margin in second hand.
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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