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________________ [155 76.2.9] महाका-पुषफर्यत-विरइया महापुराण रसिय भएण णाई रयणायर थिय देविद विसंतुल कायर। देसु विलंघिवि रणरहसुब्भडु ___ खंधावारु धरिवि जलणिहितडु। आवासिज संचारिमभवहिं कंताकतहि रइरसरमणहि । असियसियारुणपीयलहरियहिं सोहइ बहुद्सहिं वित्थरियहिं । घत्ता-सिमिरु' सुहावण परतरुणीसोहाखंडणु'। मेइणिकामिणिहि णं पंचवण्णु" तणुमंडणु' ।।1।। भलयमंजरी–रयणकतिकतं मयरकेउवतं विजयलच्छिवास ।। सायरस्स णीरं णं विमुक्कमेरं रोहिउँ दसासं ॥छ।। गज्जित परबलु दुखरु दिट्ठ चारएहिं दहवयणहु सिट्ठउ । हणुमंतेण तरुणिकमणाएं सहुं णियभायरेण सुग्गीवें। रामु रामरमणीउ रमाहरु खग्गपसायिसयलवसुंधरु । अच्छइ सायरतीरि णिसण्णउ अज्जु कल्लि हुक्कइ आसण्णउ। सारमा अहिबरनहरणीन तंगिवि विष्णवइ विहीसणु। विणवियंसु बरखयरपडत्तणु भुवणभायणिम्मलजस कित्तणु। फार लच्छि देव वि परि किंकर कवणु गणु तुह किर पायड णर। घर नष्ट हो गए। तलवारों के विस्फुरण से चन्द्रमा और दिनकर ग्रस्त हो गए । समुद्र मानों भय से चिल्ला रहा था। देवेन्द्र ठगा हुआ और कायर रह गया। युद्ध के उत्साह से उद्भट उसने देश का उल्लंघन कर समुद्र के तट पर पड़ाव डाला। चलते हुए घरों में उन्हें ठहराया गया, कांताओं से सुन्दर, रतिरस से रमण, काले सफेद अरुण पीले और हरे अनेक विस्तृत तम्बुओं से वह शोभित था। धत्ता-शत्रु-स्त्रियों के सौभाग्य का खंडन करनेवाला वह सुहावना शिविर ऐसा प्रतीत होता था मानो - रती रूपी कामिनी का पचरंगा शरीरमंडन हो। (2) रत्नों की कांति से सुन्दर, मकरध्वज़ों से युक्त, विजय रूपी लक्ष्मी के निवास, सागर का जल ऐसा ज्ञात होता है मानों मर्यादाहीन रावण को अवरुद्ध कर दिया गया हो। शत्रु-सैन्य गरजा, वह कठोर दिखाई दिया, दूतों ने जाकर रावण से कहा—स्त्रियों के लिए सुन्दर लक्ष्मी को धारण करने वाले तथा अपने खड्ग से समस्त वसुधरा को सिद्ध करने वाले राम हनुमान्, अपने छोटे भाई और सुग्रीव के साथ समुद्र के किनारे ठहरे हुए हैं । आज या कल में वह निकट आ जाएंगे। यह सुनकर अभिनव मेघ के समान स्वर वाला सज्जन विभीषण निवेदन करता है—एक तो विनमि वंश, श्रेष्ठ विद्याधर, संपूर्ण पृथिवी पर निर्मल कीसि, प्रचुर लक्ष्मी, घर में देव अनुचर, फिर वे प्राकृत नर तुम्हारा क्या ग्रहण कर पाते हैं ? आते या न आते हुए उनका 7. AP सिबिरु. 8. AP खंडण । 9. A पंचजण्णु | 10. AP मंडण । (2) 1. A रोहिजो । 2. A रमणीयरमाहरु । 3, AP विणमिवसुंधर । 4. A भवणभाविणिम्मल'; P भुवणमा णिम्मलु । 5. A बर किंकर।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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