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________________ 74.2.6] महाइ-फयंत विरइयउ महापुराणु खंतिमाणी 1 तुह सा राणी भव्वहं रुच्चइ लक्खणचित वरविवित्ति" व समसंपत्ति व कुलहरजुत्तिव णिरु परलोइणि सा आणिज्जइ घत्ता विमुच । बहुजसवंत' । धम्मपवित्ति व । साहसथत्ति व ।' जिणवरभात " । तुह सुहदाइणि । रिउ मारिज्जइ । - विरहहुयासह पियवत्तइ सुइवहक्क || वियसि रामदुमु णं सित्तव अभियझलक्क " || 2 [127 15 20 2 ' तु सुविहरहरु । विरहावsणिवडणधरणतरु । दण्णेव्व सव् समत्तु तहि । सिरिणाहें जोइड भुयजुवलु । हेला - गाढालिंगिऊण रामेण पवनपुत्तो ॥ सीयासंगमो व हरिणेव' वृत्तो छ सुह समु किं भण्ण अवरु णरु तुहु मुहं मणकमलहु दिवसयरु जलु चलु यलु तु गम्भु जहिं तहि अवसर रूसिवि अतुलबलु तुम्हारी वह रानी आर्थिका के समान है, वह भव्यों को अच्छी लगती है, एक क्षण के लिए नहीं छोड़ी जाती; जो अत्यधिक जस (जसादि प्रत्थय, यश) वाली, लक्खन की चिन्ता (व्याकरण की चिन्ता, लक्ष्मण की चिंता ) के द्वारा श्रेष्ठ कवि की वृत्ति के समान है। जो धर्म की पवित्रता के समान, समता रूपी सम्पत्ति के समान, साहस की स्थिरता के समान, कुलगृह की युक्ति के समान, जिनवर की भक्ति के समान है, जो पर की आलोचना करने वाली है, और तुम्हें सुख देने वाली है, ऐसी उसे लाया जाए और शत्रु को मारा जाए । 8. A जसवंति। 9. AP फइ । 10. AP add after this : सज्जणमेत्ति व 11. AP अमय । ( 2 ) 1. AP हरिसेण एम कुत्तो। 2. AP में 'अणसुय । 3. A धरणि । 5 पत्ता- रामरूपी जो वृक्ष विरह की आग में जल चुका था, कर्ण-पथ पर प्राप्त प्रिया की वार्ता से वह इस प्रकार विकसित हो गया मानो अमृत की धारा से सिंचित हो । (2) पवनपुत्र का प्रगाढ़ आलिंगन लेकर राम ने मानो हर्ष के द्वारा ही अपना सीता-संगम व्यक्त कर दिया | हे अंजनापुत्र, दूसरा तुम्हारे समान क्यों कहा जाता है ! तुम सुधीजनों का संकट दूर करने वाले हो। तुम मेरे मन रूपी कमल के लिए दिवाकर हो, विरह की आपत्ति में पड़ने वाले को बचाने के लिए आधार वृक्ष हो । जहाँ जल स्थल और आकाश तुम्हारे लिए गम्य हैं वहाँ मैं कहता हूँ कि सारा काम समाप्त है। उस अवसर क्रोध करते हुए लक्ष्मण ने अपना अतुल-बल
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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