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________________ 86] [72. 2.7 महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण वणु दीसइ फुल्लासोयतरु सीहि जोधणु परसोययरु। वणु दीसइ दुग्गउं कंचुइहिं सीयहि जोवणु घरकंचुइहि । वणु दीसइ तरुकोलंतकइ सीयहि जोवणु वणंति कह। वणु दीसह मूलणिरुद्धरसु सीयहि जोन्वणु कयमयणरसु । वणु दीसइ वढियधवलवलि सीयहि हारावलि धवलवलि । हियउल्लउं कामसरहिं भरिलं लंकालंकारें संभरिउ।। घत्ता–इय एयहि तणउ णरु माणइ जो णउ' जोवणु ।। मंदिरु परिहरिवि रिसि होइवि सो पइसउ वणु ।। 2 ।। अहो कयस्थो भुवणंतरे हली महेलिया जस्स घरम्मि मेहली। पलोयए लोयणएहि संमुहं मुहेण मल्हति विउंचए मुहं । हरामि' एयं कवडेण संपयं करेइ मंती महिणाहसंपर्य। उयार मारीयय होहि तं मओ । खुरेहि सिहि जवेण तम्मओ। कुकम्मए मंतिवरो णिवेसिओ विचितए हा विहिणा णिवे सिओ। जसो ण जाओ भवणंतमेरो कहं परस्थीरमणे तमे रओ। भणामि कि सिंभजरे पयं पियं दुलंघमेयं पहुणा पयंपियं । सुखदाया है। वन खिले हुए अशोक वृक्ष के समान दिखाई देता है, सीता का यौवन दूसरों के लिए खेद उत्पन्न करने वाला है। वन साँपों से दुर्गम दिखाई देता है, सीता का यौवन गृहकंचुकी से युक्त है। जिसके वृक्षों पर वानर क्रीड़ा करते हैं वन ऐसा दिखाई देता है, सीता के यौवन का वर्णन कवि करते हैं। जिसने अपने मूल भाग में जल को अवरुद्ध कर रखा है, वन ऐसा दिखाई देता है, सीता का यौवन कामदेव के रस को बढ़ाने वाला है । जिसमें धव और लवली-लता (चन्दन लता) बढ़ रही है, वन ऐसा दिखाई देता है। सीता की धवल हारावली गले में बँधी हुई है। रावण का मानस कामदेव के तीरों से भरा हुआ था, उसे याद आया-- पत्ता–यहाँ इसके यौवन का जिसने भोग नहीं किया, घर छोड़कर और मुनि होकर उसने वन में प्रवेश किया। अरे, भुवन में बलभद्र ही कृतार्थ है कि जिसके घर में मैथिली (सीता) गृहिणी है। राम नेत्रों के द्वारा सामने देखते हैं , उसके हर्षित मुख से मुख चूमते हैं। इस समय मैं कपट से इसका अपहरण करता हूँ। मंत्री राजा की संपदा करता है। हे उदार मारीच, तुम मूग वन जाओ। खुरों और सींगों के द्वारा वेष से उसके अनुरूप बन जाओ । इस प्रकार विचित्र कुमार्ग में निवेशित वह सोचता है-खेद है कि विधाता ने राजा को भवनांत तक सीमित श्वेत यश नहीं दिया, स्त्रीरमण रूपी अंधकार में वह कैसे रत हुआ ? लेकिन मैं क्या कहूँ, उसने कफ-ज्वर में दूध पी लिया है, प्रभु के द्वारा कहा गया यह अलंध्य पदार्थ है। उस समय विषाद से विकृतअंग वह एक क्षण में 2.A घरु । 3. P °णिबद्धरसु । 4.A वल्लियधवल। 5. APण वि। (3) 1. P लोयहिं । 2.A विओवए; P विउबए। 3. AP हरेमि। 4.A रमणतमेरउ।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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