SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 186] महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराम [18. 5.5 को वि सुहडु सिरु पडिउ ण चितइ असिवरु अरिवरकंठलु' घत्तइ। को वि सुहड रत्तद्दहि पहायउ सत्तु सिरत्यु णिएप्पिणु आयउ । कायरोसिणाहणहिरण पहरणु दीवु धरिवि उत्तिण्णउ । को वि सुहड़ परिवत्यिसाहउ णं पारोहएहि जग्गोहउ । रिजवाणहिं उच्चाइउ वट्टा पंखुत्तिण्णरुहिरु सिव चट्टइ। कासु वि सुहडडु गुजर ण रक्खइ कण्णालग्गु गिद्ध णं अक्खइ। पई समुडु' पत्थिवरिणि छूढउ लोहिउ णाइ कलंतरि' बूढउ । देहमासु वायसहं विहित्तउ उत्तमपुरिसह" एउ जि जुत्तउ । कासु वि अंगि रहंगु पइट्ठउ अन्भगब्भि रविबिबु व दिट्ठउ । पत्ता-सवहेणोसारिवि" अवर णिवारिवि जुझि वि मड्डु देह छिवइ । ___ कासु वि सुरकामिणि लीलागामिणि माल सयंवरि सई घिवइ ।।5।। 15 दुवई-जायइ संगरम्मि वरखयरकवालचुए बसारसे ।। __ गरकंकालमहुरवीणासरगाइयरामसाहसे ॥छ।। कोई सुभट अपने पड़े हुए शिर की चिता नहीं करता और तलवार को प्रबल शत्र के कंठ पर दे मारता है। कोई सुभट रक्त के सरोवर में नहा गया और शिरस्थ शत्रु को देखकर आ गया । कायरता के दोष के कारण मैं खंडित नहीं हुआ, (यह सोचकर) प्रहरण का दीप लेकर वह उत्तीर्ण हो गया। कोई सुभट अपनी चढ़ी हुई बाहों से ऐसा लगता है, मानो तनों से युक्त वट वृक्ष हो । शत्रुओं के वाणों के द्वारा ऊँचा किया गया वह विद्यमान है। उसके पंखों से रिसते रक्त को शिवा (सियारिन) चाँट रही है। गीध किसी भी सुभट के रहस्य को सुरक्षित नहीं रखता मानो इसीलिए कानों से लगकर वह कहता है, तुम्हारा सिर राजा के ऋण में चुक गया है। रक्त मानो व्याज में रख लिया गया है, देह का मांस कौओं में विभक्त कर दिया गया है। उत्तम पुरुषों के लिए यही उपयुक्त है। किसी के शरीर में चक्र घुस गया है, जो मेघों के बीच सूर्य बिम्ब के समान दिखाई देता है। घत्ता-कोई देवी शपथ पूर्वक दूसरी देवी को हटाकर युद्ध में भी बलपूर्वक शरीर को छुती है। तथा लीलागामिनी वह देवकामिनी स्वयं किसी (योद्धा) को स्वयंवर में माला हालती है। जिसमें नरकंकालों की मधुर वीणा के स्वरों में राम के साहस का गान किया गया है, तथा जिसमें वर विद्याधरों के कपाल से व्युत चर्बी का रस है3. A संघ but gloss रुद्र इव। 4. AP अरिवरणिय रह। 5. A बण्णविहिण्णउ । 6. A °सोहउ। 7.A पंखुत्तिष्णु P पुंखुत्तिण्णु | 8.A समुद्छ। 9. AP कलंतक। 10. AP उसिम । 11.A सरबहेण । 12. P अवरउ बारिवि।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy