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________________ 241 महाकवि पुष्पवंत कृत महापुराण वृक्षों के दल हैं, जिसमें हिरनों ने दांतों से अंकुरों को कुतर डाला है, जहां स्वच्छ और प्रकंपित जलकण उछल रहे हैं, जो अगुरु और देवदार वृक्षों से गघन है, जिसमें वृक्षो की रगड़ से आग निकल रही है, दिणाओं के मुख सुरभित धुएं की गन्ध से सुवायित है, अशोक वृक्षों के पत्ते हिल-एल रहे हैं, हवा से प्रेरित माधबी-लता के पत्र धरती पर उड़ रहे हैं, जहां कीर, कुरर, कारण्ड बाल-लताओं के घरों में कलरव कर रहे हैं, अलकों की तरह जहाँ भ्रमर समूह उड़ रहा है, जो विविध केलिगृहों से विराट है, जहाँ मनुष्य केतकी के पराग से सुवासित हो उठे हैं, जिसमें विद्याधर, पक्षेन्द्र और दानवेन्द्र की समांतर क्रीड़ा हो रही है।" (71/12) कपि रावण की दूती के माध्यम से लक्ष्मण की प्रेम-क्रीड़ा का शब्दचित्र इस रूप में खींचता है "कोई एक मयूर के साथ हास्य-पूर्वक नत्य करती लोगों के नयनों को भाती,मणाल के अंत में स्थित भ्रमरों की पंख से अलंकृत तथा दोनों पाव भानों पर रखा हा कमल ऐसी शोभा देता कामदेव का बाण' हो, जिसे वह देवों और मनुष्य के हृदय को विदारण करने के लिए दिखा रही है । हंस के साथ जाती हुई कोई अपनी गति का लीला-बिलास भी भूल जाती है। भौरा किसी के कतरल पर आकर क्पा बैठ जाता है वह मूर्ख अपने को शतदल पर बैठा हा मान रहा है। किसी के निकट मा लगा हुआ हरिन उससे दीर्च कटाक्ष की मांग करता है। किसी ने कमल को अपने कान पर धारण कर लिया है पर नेत्रों से विजित होने के कारण चारा भूरका है। श्रीनगालों की किकिणियों से युक्त लता का कटिसूत्र बांध रखा है । किसी एक ने जाकर जबर्दस्ती राम को पकड़ लिया और उन्हें पराग पिजरित (पीला) कर दिया मानो संध्या राग ने चांद को पोला कर दिया हो । या फिर शारदीय मेघ शोभित हो उठा हो । किसी ने जुही का फूल उपहास में दिया । किसी ने अपना सरस मुब दिखाया। जाति कुसुम को जातिबाला क्यों कहा जाता है जबकि उसका आनन्द संकड़ों प्रमर उठाते है फिर भी आदरणीया वह उसे अपने सिर पर बांधती है ! अपना मतलब सधने पर सभी लोग मोह में पड़ जाते हैं । कोई घूतं भ्रमरी मोगरे के पुष्प को छोड़कर अपनी देह हिलाकर गुनगुनाकर सौग सुरभित प्रिय मरूबक पर जा बैठती है।" (71113) "कोई दर्पण में चमकत हुए अपने दांतों के साथ कुंद पुष्पों को देखती है। अपनी देहगंध से मौलश्री पुष्प की ओर अधरों के संबंध से बिम्बाफल की परीक्षा करती है । कोई फूले हुए सहकार वृक्ष को देखती है, कोई बाला वासुदेव के साथ बाहयुद्ध चाहती है। नवकलियों से मतवाला और बोलता हुवा निष्कपट शुक वियोग दुःख को कुछ भी नहीं मानता । मन को कुपित करनेवाले उसे उसने कसकर पकड़ लिया, इती से बह (शुक) मुख में (चोंच में) लाल रंग का हो गया । कोई शुभ करनेवाली, हाथ में इक्षुबह लिये हुए ऐसी प्रतीत होती है, मानो विषम धनुष को धारण किये हुए हो। कोई पुष्पमाला का इस प्रकार संचार करती है, मानो कामदेव तीरों की पंक्तियाँ दिखा रहा हो। कोई पलाश पुष्पों को इकट्ठा करती है, और लक्ष्मण के लिए उपहार में देती है। स्निग्ध साल कुटिल और तीवे वे ऐसे मालूम होते हैं, मानो वसंत रूपी सिंह के नख हों। कोई काली कोयल को देखती है और पूछती है। दूसरी हंसकर उत्तर देती है कि लोगों के विरहानल के धुएं से काली यह इस समय भी बोल रही है। इसका मधुर मधु में रत विष दोनों ही प्रवासियों के मानस को आहत करता है । यदि आज मुझ से लक्ष्मण रमण करता है तो कोयल का यह प्रलाप मुझे सुख देता है।" "सीता की अंगुलियों के पानी से सींचा गया नील कमल पुण्य से पवित्र राम के उर पर ऐसा प्रतीत होता है, मानो दर्पणतल में मृग से लांछित पूर्ण चन्द्र शोभित हो । श्याम नारायण (लक्ष्मण) ने किसी महासती को इस प्रकार सींच दिया, मानो मेघ ने वनस्पती को सींच दिया हो, मानो यह (नाभि का) रोमावली रूपी अंकुर को छोड़ रहा हो, मानो वह मुखकमल से खिल गई हो। कोई सपन स्तन रूपी फलसंपदा को दिखाती है। जैसे कामदेव की सुन्दर लता हो। बार-बार सींचे जाने पर वह, जिसमें कपुर के कण
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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