SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 150] 10 महाकवि पुष्पवात विरचित महापुराण [75.9.6 आमहिदि महाधणवारणिदु सहं सुग्गीवेण परिंदचंदु । संपत्तु जणद्दणु पुण वि तेत्यु णिवसइ वर्णति बलहद्द, जेत्यु । तह पायपणइ सीसे करेवि लक्खणु सुग्गीव चवंति बे वि। पता–महिरूढउ वारियसूरकरु कामिणिवेल्लिविलासधरु ।। तुहं देव पयावहुयासणिण हेलइ दड्डउ वालितरु ।।9।। 10 ता पिसुणमरणसंतोसिएण मेल्लिवितं उववणु ववसिएण । जित्ताहवेण सहुं माहवेण सुग्गी- हणुवें राहवेण। किविकधपुरहु दिपणउं पयाणु संघट्टउं' पहि जाणेण जाणु ।। महिणहयराहं रिउरोहिणीउ चलियउ.चउदह अक्खोहिणीउ। मंडलिय मिलिय वियलियसगव्ध' दिस पत्तहिं छत्तहि छइय सव्व । गह दीसह णउ छायउ धएहि हरिचरणपयधूलीरएहिं।। करताडिय गज्जइ गमणभेरि भडहियवइ वड्ढइ वइरिखेरि। उण्णिद्दिय रामणगिलणमारि गोविंद कडक्खाइ लच्छिणारि। करिमयचिखिल्लदहि णिमण्णु संदणसंदाणिउ बहइ सेण्णु। में श्रेष्ठ लक्ष्मण सुग्रीव के साथ वहां पहुंचे जहाँ बन के भीतर राम थे। सिर से उनके पैरों में प्रणाम कर लक्ष्मण और सुग्रीव दोनों ने कहा पत्ता-धरती पर प्रसिद्ध, सूरकर (सूर्य किरण,शूरवीरों के हाथ) का प्रतिकार करनेवाला, स्त्रियों रूपी लताओं का विलास धारण करने वाला बालि रूपी वृक्ष, है देव, तुम्हारे प्रताप रूपी आग से खेल-खेल में जल गया। (10) तब दुष्ट के मरण से संतुष्ट और उद्यमी राम ने उस उपनन को छोड़ दिया। युद्धों को जीतने वाले माधव, सुग्रीव और हनुमान् के साथ राम ने किकिधा नगर के लिए प्रयाण किया। रास्ते में यान से यान टकरा गए । मनुष्यों और विद्याधरों की शत्रु को रोंधने वाली चौदह अक्षी. हिणी सेनाएँ चली । अपना गर्व छोड़कर वे मिल गए । पत्रों और छत्रों से सभी दिशाएँ आच्छादित हो गई। वजों और घोड़ों के परों से आहत धूलिरज से आच्छादित आकाश दिखाई नहीं देता। हाथों से आहत रणभेरियां बज उठी। योद्धा के हृदय में शत्रु का क्रोध बढ़ने लगा । रावण को निगलने वाली मारि जाग उठी । लक्ष्मी रूपी नारी लक्ष्मण पर कटाक्ष फेंकने लगी। हाथियों के मद के कीचड़ में निमग्न रथ को रथ से बांधकर सैन्य खींचने लगा। 5. P महाधणुया रणिदु। (10) 1, AP संघट्टि। 2. A पहु। 3. AP °सुगन्ध । 4. AP 'दहि । 5. A संदणि संदाणिए; P संदणसंवाणिए।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy