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________________ 40] महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण [69. 32. 20 अमराण कि होति" जइ जणि णिवडंति । पसु सम्गु गच्छति। दोसंति सकयस्थ तो अप्पयं तत्थ । होमेदिले मतेहिं सहुं पुत्तकंतेहिं । गम्मिज्जए सग्गु भुजिज्जए भोग्गु । . पत्ता-जलमटियचम्मेण दम्भे सुद्धि कहेप्पिणु ।। भट्ट खद्धउ मासु खगमिंगकुलई वहेप्पिणु ।।32।। 33 जइ सच्चउ बिप्प पवित्त जलु तो कि तं जायउ मुत्त ' मलु । जइ गंगाण्हाणु जि' दुरियहरु तो इम वि लहंति वि मोक्ख परु । जइ मट्टियमंडणि तमु गलइ तो कोलु विमाणे संचरइ । जइ हरिणाइणु धम्मुज्जलउं तो हरिणतलु जि जगि अग्गलउं । किं बंभणु उत्तमु तुहं कहहि तं मारिवि' मासगासु महहि । जइ दब्धे पुण्णु पवित्थरइ तो कि मयउलु भवि संसरह । तं रत्तिदियहु दब्भ जि चरइ किह इंदविमाण ण पइसरह। गोफसणपिप्पलफंसणई मुत्त ठ्ठियाई घयदसणई। जइ पाउ हणंति हुँत पउरतो वसहकायराया वि सुर। वध करने वाले और मीनों का अपहरण करने वाले, पशुओं को खाने और बांधने वाले भी देव क्यों नहीं होते ? यदि यज्ञ में पड़ने से पशु स्वर्ग जाते हैं और कृतार्थ दिखाई देते हैं, तो पुत्र और स्त्री के साथ मंत्रों सहित अपने को उसमें होम कर स्वर्ग जाया जाए और भोग भोगा जाए ? पत्ता-जल, माटी और चर्म तथा दूब' से शुद्धि बताकर तथा पक्षी एवं भृगकुल की हत्या कर ब्राह्मण ने मांस खाया। हे ब्राह्यण, यदि सचमुच मंगा का जल पवित्र है, तो वह जल मल-मूत्र क्यों बन जाता है ? यदिगंगा का स्नान पापों का हरण करने वाला है तो मछलियों को भी परम मोक्ष की प्राप्ति होनी चाहिए। यदि मिट्टी शरीर पर लगाने से मोक्ष होता है तो सुअर को देव विमान में चलना था। यदि मृग के चर्म से धर्म उज्ज्वल होता है, तो मृगों का समूह श्रेष्ठ होना था। तुम ब्राह्मण उस को पवित्र कहते हो, और यज्ञ में मारकर उसके मांस का कोर बनाते हो। यदि दूब से पुण्य का विस्तार होता है तो मृगों का झुंड आकाश में क्यों नहीं फिरता? वह दिन-रात चारा चरता रहता है। इन्द्र के विमान में वह प्रवेश क्यों नहीं करता? गाय को और पीपल को छूना और सोकर उठने पर गाय को छूना, पीपल को स्पर्श करना और घी को देखना आदि यदि पाप का नाश करते 5.AP add after this : कि दुग्गई जति । 6. A णिबहंत । 7. A गच्छत । 8. A होमेहि । (33) 1. AP मुत्तमल । 2.A वि। 3, A सोक्खु । 4.P मरिवि । 5. AP दभु । 6. A किं।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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