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________________ 761 महाकवि पुष्पदन्त विरचित महापुराण [71.14.1 14 काइ वि जणणयणहं रुच्चंतिइ मोरें सहूं सहासु णच्चंतिइ । सोहइ कमलु दुवासिहि धरियउं णालंतालिपिछविच्छृरियउं। णाई कंडु रइणाहहु केरउ दावइ सुरणरह्यिवियारउ । काइ बिसाउं वि स चमकई गइलीलाविलासि मोचक्कर काहि वि छप्पउ लंग्गज करयलि जडु अप्पउं मण्णइ थिउ सयदलि । काहि वि णियड णं ओलग्गइ एणउ दोहकडविखउ मगइ। काइ वि उप्पलु सवणि णिहित्तउं कुम्माणउं ण णयहि जित्त। कुवलयकिकिणिमालाजुत्तउं काइ वि बद्ध वेल्लिकाटिसुत्तउं। काइ वि जाइवि मड्डइ धरियउ कुसुमरएण' रामु पिंजरिउ । संशारादगं गया . . . देगा" य मोहन पां सारयधणु। जाइहुल्लु अण्णइ तहु ढोइउं अपणइ सरसु वयणु संजोइडं। जाइवंत कि जाइ भणिज्जइ जा महुयरसएहिं माणिज्जइ। तो वि भडारी सीसें बज्झइ अपकज्जि जणु सयलु वि मुज्झइ । पत्ता-सव्वंगहि सुरहिउ बरमरुवउ पिउ रुणुरुटेप्पिणु धुडिय॥ मोग्गरउ मुएप्पिणु अंगु धुणेप्पिणु तासुप्परि" महुयरि चडिय ।।14।। स लोगों के नेत्रों को प्रिय लगती हुई, मयूर के साथ एवं हंसी के साथ नाचती हुई किसी के द्वारा अपने दोनों पावत्र भागों में धारण किया गया नाल (मृणाल के) के अंत में मधुकर रूपी पख से शोभित कमल ऐसा मालम होता है, मानो सूर नर के हृदय को विदारित करने वाले कामदेव का तीर दिखाई दे रहा हो । किसी के साथ हंस चलता है, परन्तु वह उसकी गति लीला विलास में चूक जाता है । किसी की हथेली से भ्रमर आ लगा। वह मूर्ख समझता है कि मैं कमल दल पर आ बैठा हूँ। मृग किसी के निकट आकर उसकी सेवा करता है, और उसका दीर्घ कटाक्ष माँगता है। किसी के द्वारा कानों पर रखा गया कमल मुरझा गया है, मानो उसके नेत्रों के द्वारा जीत लिया गया हो। किसी ने कुबलय रूपी किंकिणी माला से युक्त लता रूपी कटिसूत्र बांध लिया। किसी ने जबर्दस्ती राग को पकड़ लिया और पुष्प पराग से उन्हें पीला कर दिया, मानो संध्या राग ने चन्द्रमा को पीला कर दिया हो या मानो उसी से शारदीय मेघ शोभित हो। किसी ने जाती पुष्प दे दिया। दूसरी ने सरस मुखश्री की ओर देखा जो (जाती पुष्पों) सैकड़ों मधुकरों के द्वारा भोगा जाता है, उसे जाति वाला (उत्तम जाति का ) क्यों कहते हैं । तो भी आदरणीया वह उसे सिर से बांधती है । अपने काम में सभी लोग मोहित होते हैं। घत्ता-मोगर पुष्प को छोड़कर अपने शरीर को फड़फड़ा कर तथा रोकर धूर्त मधुकरी सर्वांग-सुरक्षित प्रिय मरुबक पुष्प पर चढ़ गई। AP दुदाराहि । 2.P दावइण सूर। 3. AP समउं हंसु चम्मक्कइ। 4. को माण तं जयणहि। 5. P मंथइ र मत्थर but corrects it to मड्डइ। 6. AP तेण जि । 7.A वृत्तलिया । 8.AP जासुपरि।
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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