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________________ 69. 21.8] महारुद्र- पुपफयंत विरश्य महापुराणु माणलज्जवज्जियाहूं कुट्ठणकाययाहूं णीय कम्मका राह घणाहं द्दियाहं ता सो महपिंगलु लज्जियउ free forcefव बंधवहं सेवइ हरिसेण गुरुहि पयई एतहि सो सयरु वि बालियइ अहुजिवि तहिं णववहुसुरउ उज्झावर जाइवि पाणपिउ भावणिज्जियाहं । छिष्णपाणिपाया। इथिभिमारयाहं || साहुकमणिदयाहं । ववमाणदुज्जसाहं' बुलकुच्छिगया हं' गोत्तवित्तचत्त जा वि दिज्जए ण कण सा वि । घत्ता - मंडवमसि विवाहि पिंगलु जो पइसा रइ ॥ सो वित्तदुक्खु यिधीयहि वित्थार || 2011 भार कम पुरि raider विप्पे हिउ दुक्कुलाहं सालसाहं' | दीणभावणं गयाहूं । 21 गउ चामरछत्तविवज्जियत । लग्गउ दहदुविहहं जिणतवहं । fears अनंतs दुक्कियई । बरु लइउ सयंबरमालियइ । आमेल्लेप्पिणु सासुरउं । सिरि सुलसह सहु भुंजंतु थिउ । पइसइ भिक्खहि चउवण्णघरि । सामुद्द. असेसु सच्चरहिउ । 29 5 10 5 रोगों से पराजित, कोढ़ी, क्षीण शरीर, कटे हाथ-पैर वाले नीच कर्म करने वाले, स्त्रियों और बच्चों की हत्या करने वाले, निर्दय, घिनोने, अच्छे कामों की निन्दा करने वाले, बढ़ते हुए अपयश वाले, खोटे कुल वाले, आलसियों, बढ़ती हुई खुजली से युक्त शरीर वाले, दीन भाव को प्राप्त, उनको तथा ऐसे लोगों को तो कुल और धन से रहित कन्या भी नहीं दी जाती। पत्ता - जो व्यक्ति मंडप के भीतर विवाह में पिंगल का प्रवेश कराएगा वह अपनी कन्या के लिए, दुःख और वैधव्य लाएगा। 2. A बुज्जणा हुं 13. A दुम्मुहाहं । 4. A कुच्छियारयाहं । 5. A बहसार। 6 Promits सो (21) 1 AP एककल्लउ | 2. A अणूडुंजहि; P अणुभंजहि । 3. AP पश्स रद्द 4. A जा ता विष्पें एक्कें (21) इससे बेचारा मधुमंगल लज्जित हुआ और चामरों और छत्रों से रहित होकर चला गया। वह अकेला अपने बंधु और बांधवों से छिपकर जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कहे गए बारह प्रकार के तप में लग गया। वह हरिषेण के चरणों की सेवा करने लगा । और इस प्रकार अनन्त दुःखों का क्षय करने लगा। यहाँ भी उस बाला ने स्वयंवरमाला के द्वारा सगर को वर रूप में ग्रहण कर लिया । वह भी वहां नववधू के साथ सुरति का भोग कर फिर ससुराल छोड़कर अयोध्या नगरी में जाकर प्राणप्रिय श्री सुलसा के साथ आनन्द करता हुआ रहने लगा। जिसमें चारों प्रकार के art के घर हैं ऐसी उस नगरी में आदरणीय मुनि मधुपिंग ने भिक्षा के लिए जैसे ही प्रवेश
SR No.090276
Book TitleMahapurana Part 4
Original Sutra AuthorPushpadant
AuthorP L Vaidya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2001
Total Pages288
LanguageHindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size7 MB
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