________________
२० तीर्थंकर महावीर का फल हो तो मैं इस दुष्ट विशाखनन्दी का सर्वनाश करने वाला बन और ऐसा बल प्राप्त करूं कि कोई मेरी अवहेलना न कर सके।" बस, क्रोधाविष्ट मुनि ने तपस्या के अमृत को राख में मिला दिया, घोर तप के महान फल को भणभर में नष्ट कर गला । जितनी उग्रता से उन्होंने कठोर तप किया था, उतनी ही उग्रता से वह अनिष्ट संकल्प उनके सम्पूर्ण मन पर छा गया। विश्वभूति ने उग्र तपश्चरण के द्वारा जो आध्यात्मिक विभूति प्राप्त की थी, वह क्रोध और अहंकार के प्रबल वेग में बह कर नष्ट हो गई।
उग्र तप में जहाँ चमत्कारी फल देने की शक्ति है, वहाँ उसमें पतन का भय भी है। इसीलिये तो जैन साधना में तपःसाधना के साथ संयम का विधान कर अग्नि के साथ जल का अनुबन्ध किया गया है।'
क्र रता से पतन विश्वभूति मुनि का जीव कुछ भवों के बाद पोतनपुर के राजा प्रजापति का पुत्र बनकर उत्पन्न हुआ। यहां उसका नाम रखा गया 'त्रिपृष्ठ' । राजा प्रजापति के एक रानी और थी, उसने भी एक वीर पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम 'अचल रखा गया। कुमार त्रिपृष्ठ अत्यन्त बलशाली और अद्भुत तेजस्वी राजकुमार था। जैसे अग्नि के निकट जाने से उसकी ऊष्णता अनुभव होती है, सूर्य की किरणों के सामने जाने से जैसे उसकी प्रचंडता से घबराहट होती है वैसा ही कुमार त्रिपृष्ठ का तेज था, उनके निकट आने का भी किसी को साहस नहीं होता था।
विशाखनन्दी का जीव उस युग का प्रतिवासुदेव बना राजा अश्वग्रीव ! पोतनपुर उसी के आधिपत्य में था । इस नगर की सीमा के पास एक सघन जंगल में भयानक सिंह रहता था। आस-पास की भूमि बहुत अच्छी और उपजाऊ थी, वहां चावल की विशाल खेती होती जिस कारण वह क्षेत्र 'शालिक्षेत्र' कहलाता था । सिंह कभी-कभी गुफाओं से निकल कर खेतों की ओर जाता और किसान परिवारों का विनाश कर डालता । सिंह के भय से चारों ओर आतंक छा गया । राजा अश्वग्रीव के पास पुकार गई । सिंह के आतंक से किसानों और खेतों की रक्षा के लिये वह अपने अधीन राजाओं को बारी-बारी से भेजने लगा।
राजा प्रजापति के पास एकबार अश्वग्रीव का संदेश आया-"शालिक्षेत्र में जाकर सिंह के आतंक से किसानों की रक्षा कीजिये।" प्रजापति तैयार हुये तो त्रिपृष्ठ कुमार को पता लगा, पिताजी से उन्होंने कहा-"पिताजी ! इस छोटे से
१ विषष्टि० पर्व १०, सर्ग १