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साधना की पूर्व भूमिका | २३ दिशाएं लाल होने लगी तो वासुदेव की नींद खुली । देखा कि सभा वैसी ही जमी है, संगीत चल रहा है। वासुदेव की आँखों से आग बरस पड़ी-'शय्यापालक ! मुझे नींद लग जाने पर संगीत बन्द नहीं किया ? क्यों ?"
शय्यापालक के हाथ पैर कांप गये। घिधियाता हुआ हाथ जोड़ कर बोला"महाराज ! संगीत की मीठी तान में कुछ भान भी नहीं रहा, बड़ा आनन्द आ रहा था, इसलिये चलने दिया।"
वासुदेव क्रोध में एड़ी से चोटी तक लाल-पीले हो गये । गर्जते हुये कहा"मेरी आज्ञा भंग करने की हिम्मत !" फिर अपने सेवकों से आदेश दिया-"इसके कान संगीत के रसिक हैं, खौलता हुआ शीशा इसके कानों में उंडेल दो।" वासुदेव की आज्ञा का पालन हुआ । तड़पते-तड़पते शय्यापालक के प्राण पखेरू उड़ गये।
इस उत्कट क्रोध एवं क्रूर कर्म के कारण त्रिपृष्ट वासुदेव का सम्यक्त्व नष्ट हो गया । अनेक भवों तक वे नरक एवं तिथंच योनि की यातनाएं भोगते हुये परिभ्रमण करते रहे । अनेक जन्मों के तप से अजित पुण्य कुछ ही क्षणों की क्रोधाग्नि में जलकर भस्म हो गया।
साधना की दृष्टि से भगवान महावीर का यह जन्म सफल नहीं कहा जा सकता, किन्तु आत्मा के उत्थान के साथ पतन का भी लेखा-जोखा आना चाहिये और वह इसमें स्पष्ट है कि हजारों लाखों वर्ष तक आचरित सुदीर्घ तप क्रोध और क्रूरता के दावानल से भस्मसात् हो गया।
पुनः सूर्योदय महावीर का जीव त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में अपने अद्भुत बाहुबल से भले ही तीन खण्ड का आधिपत्य प्राप्त कर सका, अनुपम भोग सामग्री भोग सका, किन्तु राज्यमद, तीव्र विषयासक्ति, क्रूरता एवं हिंसाप्रियता आदि जघन्य भावनाओं के कारण वह मर कर सातवीं नरक में गया। क्रूरता के संस्कार उसके हृदय में इतने गहरे जम गये थे कि नरक व हिंस्र पशु योनि के सिवाय उसकी अन्य कोई गति संभव ही नहीं थी। नरक से निकल कर वह अनेक जन्मों में सिंह जैसे कर प्राणी के रूप में क्रूरता के संस्कारों को भोगने का प्रयत्न करता रहा। चरित्रकथा लेखकों
१ विपष्टि० पर्व १०, सर्ग १