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साधना के महापथ पर | ९५ चुल्लूभर गरम पानी से पारणा करता है, उस व्यक्ति को थोड़ी-बहुत (योग्यतानुसार) तेजोलेश्या उत्पन्न हो सकती है।"
महावीर द्वारा गोशालक ने तेजलेश्या की साधना का संपूर्ण रहस्य प्राप्त कर लिया। कुछ समय बाद भगवान् कूर्मग्राम से निकले। गौशालक पीछे-पीछे इधरउधर देखता मटकता चल रहा था कि सहसा उसकी दृष्टि उसी तिलक्षुप के स्थान पर पड़ी। वहां पास में ही एक तिल का छोटा-सा पौधा खड़ा था। पर, गौशालक को लगा-यह पौधा कोई दूसरा है, चूंकि उस पौधे को तो उखाड़कर फेंक दिया था। अतः कुछ व्यंग्यपूर्वक उसने श्रमण महावीर से कहा- "देखिए भगवन् ! आपने जिस तिल-क्षुप में सात जीव पैदा होने की भविष्यवाणी की थी, उन जीवों का क्या, विचारे पोधे का भी कहीं पता नहीं है।"
गौशालक की शरारत और दुष्टता महावीर से छुपी नहीं थी, पर क्षीरसागर का अनन्त जल सांपों के लोटने से कभी जहरीला हुआ है ? प्रभु महावीर उसी गम्भीरता के साथ बोले--"गौशालक ! तुम भ्रान्ति में हो। जिस तिल-क्षुप को तुमने उखाड़ फेंका था, वह वहीं पर कुछ समय बाद गाय के खुर से दब गया और उसी दिन वर्षा हो जाने से वह पुनः भूमि में अकुरित हो गया। किसी के आयुष्यबल को क्या कोई समाप्त कर सकता है ? यह वही पौधा है, और इसकी एक फली में वही सात फूल सात तिल बनकर पैदा हुए हैं।"
श्रद्धाहीन गौशालक ने तिल के पेड़ से फली तोड़ी तो ठीक उसमें सात तिल निकले । गौशालक की वाचा चुप हो गई, पर उसके हृदय में उथल-पुथल मच उठी। इस घटना से वह नियतिवाद का कट्टर समर्थक बन गया। कुछ घटनाएं पहले भी उसके समक्ष घट चुकी थीं। भगवान् महावीर ने जैसा भविष्य कहा, वैसा ही हुआउन घटनाओं की प्रतिक्रिया गौणालक के मन पर यह हुई कि, "जो कुछ होना है, वह पहले से ही निश्चित होता है। उसमें कोई कुछ परिवर्तन नहीं कर सकता। तथा जीव मर कर अपनी ही योनि में उत्पन्न होता है।"
___ गौशालक श्रमण महावीर के पास वि० पू० ५१० (साधनाकाल के दूसरे वर्ष) में आया था, और वि० पू० ५०३ (साधनाकाल के दसवें वर्ष) तक लगभग ७-८ वर्ष तक उनके पीछे-पीछे घूमता रहा। कष्टों से घबराकर बीच में लगभग ६ मास तक वह श्रमण महावीर से दूर भी रहा, पर इधर-उधर भटक कर पुनः वह प्रभु की शरण में आ गया।
१ भगवती सूत्र १५॥३