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कल्याण-यात्रा | १७३ माहार-पानी का त्याग करके, संल्लेखना संथारा-पूर्वक मृत्यु की कामना नहीं करते हुए धर्म-जागृति के साथ विचरना श्रेयस्कर होगा।"
धर्म-जागति के इन पवित्र तथा उत्तम संकल्पों से आनन्द की भावना अत्यंत विशुद्ध हो रही थी, उसकी लेश्याएं निर्मल तथा अध्यवसाय शुभ थे इस प्रकार अति विशुद्ध भाव-धारा में बहते हुए उसे अवधि-ज्ञान नाम का विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न हुआ। उस अवधि-ज्ञान के प्रभाव से वह छहों दिशाओं में दूर-दूर तक के पदार्थ देखनेजानने लगा।
उसी समय' भगवान महावीर वाणिज्यग्राम में पधारे । भगवान के प्रथम शिष्य गणधर इन्द्रभूति गौतम भिक्षार्थ नगर में गए और वहां पर लोगो से आनन्द गाथापति के संथारा की चर्चा सुनी। इन्द्रभूति आनन्द से मिलने ज्ञातृकुल की पौषधशाला की ओर चल पड़े। आनन्द वहाँ अपनी साधना में लीन था । इन्द्रभूति गौतम को आते देखकर वह प्रसन्न हुआ और वंदना करके बोला - "भगवन् ! क्या गृहस्थ को अवधि-ज्ञान हो सकता है ?'
गणधर गौतम-"हाँ, हो सकता है।"
आनन्द- "भगवन् ! मुझे अवधि-ज्ञान हुआ है, जिसके द्वारा मैं पूर्व, पश्चिम एवं दक्षिण दिशा में लवण समुद्र के भीतर पांचसो योजन तक, उत्तरदिशा में चुल्ल हिमवंत पर्वत तक, ऊर्ध्व-लोक में सौधर्मकल्प तक, तथा अघोदिशा में लोलुपच्चय नामक नरकावास (रत्नप्रभा का) तक देख रहा हूं।"
आनन्द की बात सुनकर गौतम ने कहा-"आनन्द ! श्रमणोपासक (गृहस्थ) को अवधि-ज्ञान होता तो अवश्य है, पर इतना दूरग्राही नहीं होता जितना कि तुम बतला रहे हो ! तुम्हारा यह कथन भ्रांत प्रतीत होता है, अतः तुम्हें अपने मिथ्याकथन का आलोचना-पूर्वक प्रायश्चित्त करना चाहिए।"
मानन्द ने विनय किन्तु दृढ़ता के साथ उत्तर दिया- "भगवन् ! क्या निन्यशासन में सत्य कथन करने पर भी प्रायश्चित्त करना चाहिए।"
गौतम ने चौंककर कहा-"नहीं ! ऐसा तो नहीं है, पर इसका क्या मतलब ......?"
मानन्द-"भगवन् ! मैंने जो कुछ कहा है, वह यथार्थ है, सत्य है, आप उसे मिथ्या कथन बता रहे हैं तो यह प्रायश्चित्त मुझे नहीं, आपको करना चाहिए।"
१ वि. पु. ४७७॥