Book Title: Tirthankar Mahavira
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 302
________________ सिद्धान्त-साधना-शिमा | २८९ पत्तारि एए कसिमा कसाया, सिचंति मूलाई पुग्भवस्त । - ८४० ये चार कषाय (क्रोध-मान-माया-लोभ) जन्म-मरणस्नी लता के मूल को सींचते हैं। कपाय से जन्म-मरण की परम्परा बढ़ती है। वाणी-विवेक विदढ़ मिवं असंदिर परिपुर्ण वियं नियं। मपिरमधिगं भासं निसिर अत्त। -दश० ८।४८ ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो, दृष्ट (देखी हुई हो) परिमित, संशयरहित, पूर्ण, वाचालता रहित तथा शांतियुक्त हो। मिवं अनुढं अणुवीइ भासए सयाणमन्ने महा पसंस। -दश० ७५५ संक्षिप्त, सुन्दर और विचारपूर्वक भाषा बोलनी चाहिए। ऐसा करने वाले की सम्यजनों में प्रशंसा होती है। व्हेब सावग्यमोयनी गिरा, मोहारिणी बाब परोवधायनी। सेकोह मोह भय हासमानबो, न हासमाजो वि गिरं बएन्ना । -दश० ७.१४ पापयुक्त, हिंसा व असत्य का अनुमोदन करने वाली भाषा नहीं बोले । कोष, मोम और भयवश तथा दूसरों की हंसी उड़ाते हुए भी न बोले । भासमाणो न भासिन्या व बन्फेन्स मम्मयं। -सूत्र. १६२५ बोलते हुए के बीच में न बोले । मर्मभेद करने वाली वाण न बोले । सेवा कुन्ना भिन्यू गिलामस्स गिलाए समाहिए।-सूत्र. ११३०२२० भिक्षु प्रसन पशांत भाव के साथ अपने रुग्ण साथी की परिचर्या करे । नविनय वह -सूत्र. ११११।२ किसी के साथ बर-बिरोध न करें। मिलापस गिलाए बेगावच्चारणयाए भन्नट्य मबह ।। -स्थानांग रोपी की बन्लान भाव से सेवा के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। संगिहीय परिवस संगिहनवाए मन्दव्य मबह । - स्थानांग पो बनाधित एवं असहाय है, उनको सदा सहयोग तथा आश्रय देने में तत्पर पला पाहिए।

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