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२८८ | तीपंकर महावीर
अप्रमाद
अप्पमत्तो गये निन्छ।
-दश० ८१६ सदा अप्रमत्त-सावधान होकर यत्नशील रहे। भार पसीव बरेऽप्पमत्ते।
-उत्त० ४१६ भारंड पक्षी की भांति सदा अप्रमत्त जागरूक रहे।
समयं गोयम ! मा पमायए। -उत्त० १०१ गौतम । क्षण भर भी प्रमाद मत करो।
पमायं कम्ममाहंसु अप्पमायं तहावरं। -सूत्र ० १।८।३ प्रमाद कर्म है, अप्रमाद कर्म का निरोध (संवर) है।
असंखयं जीविय मा पमायए । -उत्त० ४११ जीवन असंस्कृत है - (मण भंगुर है तथा टूटने पर पुनः जोड़ा नहीं जाता) अतः क्षण भर भी प्रमाद मत करो। मात्म-विजय
जो सहस्सं सहस्सागं संगामे बुज्जए जिए।
एग निगेन्ज अप्पागं एस सो परमो जमओ। -उत्त० ६।३४ दुर्जय संग्राम में लाख शत्र-योद्धाओं को जीतने की अपेक्षा एक स्वयं की मात्मा को जीतना अधिक कठिन है । आत्म-जय ही परम-जय है ।
अप्याणमेवमप्पाणं महत्ता सुहमेहए। -उत्त० ९३४ अपनी बात्मा द्वारा आत्मा को (विवेक द्वारा विकारों को) जीतकर सुख प्राप्त करो। कवाय-विजय
कसाया अग्गिणो बुत्ता सुप सील तवो जलं। -उत्त० २३३५३ कषाय अग्नि है, अत (मान), शील (सदाचार) और तप उसे बुझाने वाले
उसमेण हणे कोहं, मागं महबया विणे।
मा पन्चवमान, लोमं संतोसबो जिगे। -दश० ८।३९ क्रोध को समा से, मान को मृदुता से, माया को सरलता से और लोभ को संतोष से जीतना चाहिए।