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२८६ | वीर्षकर महावीर धर्म भावना
अन्य धम्म पग्विजयामो, गहि पवना न पुनम्नवामो। अगाग मेवय मवि किंधि, सबा खमं गे विणहत्त रागं ।
-उत्त० १४१२८ हम तो बाज ही धर्म को जीवन में धारण करेंगे, क्योंकि जिसके धारण करने से पुनर्जन्म (जन्म-मरण) नहीं होता, वह धर्म ही है। ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो हमने भोगा नहीं, फिर भोगों में आसक्ति क्यों ? धर्म-श्रद्धा ही हमें राग से मुक्त कर सकती है। काम-भोग भावना
( अनेक प्रणों में इसके स्थान पर 'लोक भावना' का उल्लेख है। लोकभावना का चिन्तन 'लोक-स्वरूप' प्रकरण में बताया जा चुका है, मतः वैराग्योद्योधन में सहायक होने से यहां पर काम-मोग मावना का वर्गम है।)
समितसुक्ता बहुकालदुक्या, पगामदुक्ला मणिगामसुक्ला । संसारमोबस्त विपक्चभूषा, साणी अणस्वाग उ काममोगा।
-उत्त. १४१३ काम-भोगों के सेवन से मणिक सुख होता है, और दीर्घकालीन दु:ख। उनमें सुख तो क्षणभर का है, और दुःख का कोई पार नहीं । ये काम-भोग-संसार भ्रमण के कारण और मोक्ष के विरोधी है, अनर्थ एवं कष्टों की बान है।
सल्म कामा विसं कामा, कामा मासीविसोवमा ।
कामे व पत्येमाषा अकामा चंति दुग्गई। –उत्त० ६।५३ . काम-भोग शल्य हैं, विष हैं, आशीविष-जहरी नाग के समान है। भोगों की प्रार्थना करते-करते जीव भोगों को प्राप्त किये बिना ही (भोगासक्त बुखिपूर्वक) मरकर दुर्गति को प्राप्त होता है। विनय
रापिएतु विनयं पचे। अपने से बड़ों का विनय करना चाहिए।
धम्मत बिनो मूल। -द. २२ धर्म का मूल विनय है।
-दरा.८४