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सिद्धान्त-साधना शिक्षा | २८७ विवतो अविणीयस्स संपत्ति विनियस य । -दश० २१ अविनीत को विपत्ति और विनीत को संपत्ति प्राप्त होती है।
अनुशासन अण सासिओ न पुप्पिन्ना। -उत्त० ११९ गुरुजनों के अनुशासन से कभी कुपित (अन्य) नहीं होना चाहिए ।
हियं विगयमया दुखा, फल्स पि अनु सासगं। वेसं तं होइ मूडाग, बन्ति सोहिकरं पर्य ।
-उत्तरा० ११२९ भय रहित बुद्धिमान शिष्य गुरुजनों के कठोर अनुशासन को भी अपने लिए हितकारी मानते हैं । परन्तु मूर्खजन को शांति और आत्म-शुद्धि करने वाले हितवचन भी देष के कारण बन जाते हैं।
आत्मानुशासन बरं मे अप्पावंतो सजमेण तवेणय।
माहं परेहि बम्मतो बंधहि बहेहि ॥ -उत्त० १.१६ संयम और तप द्वारा में स्वयं अपना दमन- अनुशासन करू', यही श्रेष्ठ मार्ग है । अन्यथा ऐसा न हो कि दूसरे वष एवं बंधन द्वारा मुझ पर अनुशासन करें, मेरा दमन करे ।
अप्पाबंतो सुही होइ अस्सि लोए परत्यय। -उत्त० १३१५ जो अपना दमन (अनुशासन) स्वयं करता है वह इस लोक एवं परलोक में सुखी होता है।
मनोनिग्रह मनो साहसिमो मोमो बुदस्सो परिवाया। तं सम्मं निगिम्हामि धम्मसिचाइ कंचगं ॥
- उत्तरा० २२।५८ यह मन बड़ा ही साहसिक भयंकर दुष्ट घोड़ा है, जो बड़ी तेजी के साथ दौड़ता रहता है। मैं धर्मशिक्षा रूपी लगाम से उस घोड़े को अच्छी तरह वश में किये रहता हूं।
मगं परिवाना से निवे। -आचा० २३॥१५॥१ जो अपने मन को अच्छी तरह परखकर इसे अनुशासित रखता है, वही नियन्य है।