Book Title: Tirthankar Mahavira
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 294
________________ सिद्धान्त-साधना-शिक्षा | २८१ अकोसेन्जा परो भिक्खू न तेति परिसंबले । सरिसो होइ बालागं तम्हा मिक्सून संबले ॥ -उत्त० २।२४ कोई भिक्ष को कठोर वचनों से आक्रोश करे, तिरस्कार करे तब भी भिक्ष उन पर क्रोध न करे । क्योंकि क्रोध करने से भिक्ष भी उस अज्ञानी के समान हो जाता है, अतः मन को शांत रखना चाहिए। तितिखं परमं नच्चा मिक्स धम्म विचितए । - उत्त० २।२६ तितिक्षा (समता) को परम धर्म जानकर भिक्षु अपने धर्म का अनुचिन्तन करे। समयाए समणो होई -उत्त० २०३२ समता का आचरण करने से ही 'श्रमण' वास्तव में श्रमण होता है । सामाइयमाहु तस्स जं जो अप्पाण भए न बंसए । -सूत्र० ११२।२।१७ जो अपने को सदा भयमुक्त (निर्भय) रखता है, उसी को समभाव रह सकता है। सब्वं जगं तु समयाणुपेही पियमप्पियं कस्सवि नो करेज्जा। -सूत्र० १।१०।६ समस्त जगत को समदृष्टि से देखने वाला न किसी का प्रिय (स्नेह) करता है और न किसी का अप्रिय (द्वैप) करता है, किंतु वह अपने समभाव में स्थिर रहता है। मिक्षा और भोजनविधि अवीणो वित्तिमेसिज्जा न विसोइज पंरिए। अमुच्छिओ मोयणमि मायणे एसणारए ।।-दश० ५२२२२६ भिक्षु अदीनभाव मे आहार आदि की गवेषणा करे । भोजन न मिलने पर खिन्न न हों, मिलने पर उसमें आसक्ति न करे, किंतु आहार (भोजन) की मात्रा (परिणाम) का ज्ञान रखते हुए उपभोग करे । समुयाणं बरे भिक्खू कुलमुच्यावयं सया। -दश० २२।२५ भिक्ष - सदा ऊंच-नीच, धनी-गरीब कुलों में समभाव के साथ सामुदायिक भिक्षा ले । ऐसा न करे कि गरीब घर को छोड़ दे और ऊचे घर में चला जाये ।

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