Book Title: Tirthankar Mahavira
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 293
________________ २८० | तीर्थकर महावीर जत्येव पासे का दुप्पउत्तं कारण पाया पशु माणसेण । तत्व धोरो परिसाहरिन्ना आइन्नमो, सिप्प मिवक्बालोष । -दश० चू० २१९ साधक जब कभी अपने आपको, मन, वचन और काया से कहीं भी दुष्प्रवृत्तअसंयम में जाता देखे तो उसी क्षण अपने योगों को इस प्रकार खींच लेवे, जैसे घोड़े को लगाम से खींच लिया जाता है। हत्यसंजए पायसंगए वायसंजए संजए इंदिये। अन्नप्परए सुसमाहियप्पा सुत्तत्वं च विणागर जेस मिक्खू । -दश० १०।१५ जो अध्यात्म में लीन रहता है, समाधिभाव में रमण करते हुए सूत्र और अर्थ का चिन्तन करता है और हाथों का, पैरों का, वचन का और समस्त इन्द्रियों का संयम रखता है-वह सच्चा भिक्षु है। जहा कुम्मे स अंगाई सए बेहे समाहरे। एवं पावाई मेहावी अन्सप्पेण समाहरे।- सूत्र० १८१६ जैसे कछुआ आपत्ति को देखकर अपने अंगों को सिकोड़ लेता है। उसी प्रकार विचारशील पुरुष असंयम (पाप) से अपनी इन्द्रियों का संकोच कर रखे। भवकोडी संचियं कम्मं तवसा निम्नरिज्जाइ। - उत्त० ३०१६ जैसे तालाब का जल सूर्यताप से अथवा उलीचने से रिक्त हो जाता है, वैसे ही तप के द्वारा करोड़ों भवों के कर्म नष्ट हो जाते हैं। (विशेष वर्णन पृष्ठ २६२ पर देखें।) त्याग जेय ते पिये भोए लई विप्पट्ठी कुव्वा । साहोणे चयइ भोए सेए चाइ ति बच्चाई। -दश० २।३ अपने को प्रिय लगने वाले भोग प्राप्त हो जाने पर भी जो उनके प्रति पीठ दिखाकर चलता है और स्वतन्त्रतापूर्वक उनका त्याग कर देता है, वही सच्चा त्यागी है। (ब्रह्मचर्य के लिए देखें पृष्ठ २७५) समभाव (तितिक्षा) जो समो सबभूएस तसे पावरसुय। तस्स सामाइयं होड़ इह केवलिभासियं ।-अनुयोग० १२८ जो प्रस एवं स्थावर रूप समस्त प्राणिजगत के प्रति समभाव रखता है, उसी को सामायिक होती है, ऐसा केवली भगवान का कथन है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308