Book Title: Tirthankar Mahavira
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni, Shreechand Surana
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 296
________________ सिद्धान्त-साधना-शिक्षा | २८३ बह माणुस्सए ठाणे धम्ममाराहिय गरा। -सूत्र० ११५१५ इस मनुष्य लोक में धर्म की आराधना के लिए ही हम मनुष्य हुए हैं। अतः सज्ञान प्राप्त कर धर्माराधना करो । अशरणभावना जह सोहो व मियं गहाय, मन्चू नरं नेह ह मन्तकाले। न तस्स माया व पिया व भाया, कालम्मि तम्मिंऽसहरा भवंति ।। - उत्त० १३३२२ अन्तिम समय आने पर मृत्यु मनुष्य को ऐसे ही दबोच कर ले जाता है, जैसे सिंह मृग को । उस समय न माता-पिता बचा सकते हैं, न भाई व बंधु । वित्तं पसवो य नाइनो तंबाले सरणं ति मन्त्रह। एए मम तेसु वो अहं नो ताणं सरणं न विजह ॥ -सूत्र० १११॥३॥१६ अज्ञान मनुष्य समझता है-यह धन, ये पशु, ये स्वजन व जातिजन मेरी रक्षा कर सकते हैं । ये मेरो हैं, मैं उनका हूं। किंतु वास्तव में यह मिथ्या प्रांति है। कोई किसी का त्राण या शरण नहीं है। संसार भावना जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं रोगाय मरणाणिय। महो दुयो हु संसारो जत्व कोसंति जंतुनो ॥-उत्त० १९१६ यह संसार दुःखमय है, जन्म का दुःख, बुढ़ापे का दुःख, रोगों का दुःख, मृत्यु का दुःख, चारों ओर दुःख-ही-दुःख है, जिसमें विचारा प्राणी क्लेश पाता है। मन्चुणाज्माहओ लोगो जराए परिवारिको। - उत्त० १४१२२ यह संसार जरा (बुढ़ापे) से घिरा हुआ है, और मृत्यु से पीड़ित है। इसमें आनन्द व शांति कैसी ? अनित्य भावना मच्चेइ कालो तरन्ति राइनो न यावि भोगा पुरिसान निया। उविन्ध भोगा पुरिसं चयन्ति दुमं बहा तीषफलंब पल्ती । -उत्त० १३३३१ समय बीता जा रहा है, रात्रियां दौड़ी जा रही हैं। मनुष्यों को जो भोग (सामग्री) मिली है, वह भी नित्य नहीं है। जैसे वृक्ष के फल पड़ने पर पक्षीगण उसे छोड़कर चले जाते हैं, वैसे ही काम-भोग पुरुष को छोड़कर चले जाते हैं।

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