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सिद्धान्त-साधना-शिक्षा | २६१
चारित्र के पांच प्रकार सामाइयत्व पढम, छेदोवद्रावणं भवे बीयं । परिहारविसुरीयं, सुहमं तह संपरा ॥ अकसायं महक्खायं, छउमत्यस्स जिणस्स वा ॥
--उत्त० २८॥३२,३३ (१) सामायिक, (२) छेदोपस्थापनीय, (३) परिहारविशुद्धि, (४) सूक्ष्मसंपराय तथा (५) कषायरहित यथाख्यातचारित्र, (जो छद्मस्थ या जिन को प्राप्त होता है ।) ये चारित्र के पांच प्रकार हैं ।
मुक्ति-क्रम नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुँति धरणगुना। अगुणिस्स नत्यि मोक्खो, नत्यि अमुक्खस्स निम्बाणं ॥
-उत्त० २८.३० जिसको श्रद्धा (विश्वास) नहीं है, उसे सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं होता और सच्चे ज्ञान के बिना चारित्र आदि गुण नहीं होते और चारित्र गुण के बिना कममुक्ति नहीं होती और कर्ममुक्ति के बिना निर्वाण (अनन्त चिदानन्द) नहीं होता।
तप का उद्देश्य छन्वं निरोहेण उवेइ मोक्छ । -उत्त०४८ इच्छाओं का निरोध करना तप हे और उससे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
नो इह लोगट्ठयाए तवमहिद्विज्जा ।
नो परलोंगट्ठयाए तवहिटिठना । नो कितिवन्न सहसिलोगट्ठयाए तबहिन्जिा ।
नन्नत्य निज्जरयाए तवमहिछेज्जा ॥ -दशव०६६ इस लोक के लिए तप नहीं करना चाहिए। परलोक (स्वर्ग) के लिए तप नहीं करना चाहिए। यश, कीर्ति, प्रतिष्ठा आदि के लिए तप नहीं करना चाहिए । केवल कर्मनिर्जरा (आत्मशुदि) के लिए ही तप करना चहिए।
तप का फल तवेणं बोदाणं जगई।
-उत्त० २०२८ तप से व्यवदान-पूर्व कर्मों का क्षय कर आत्मा शुद्धि प्राप्त करता है।