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२६८ | तीपंकर महावीर
कम्ममूलंग छ। -आचारांग १३३०१ कर्म का मूल क्षण अर्थात् हिंसा है।
सुक्क मूले जहापसे सिंचमाणे प रोहति । एवं कम्मा ग रोहंति मोहणिज्जे बयं गए ।
-दशा तस्कन्ध ५।१४ जिस प्रकार मूल सूख जाने पर सींचने पर भी वृक्ष लहलहाता, हरा-भरा नहीं होता है, इसी तरह से मोह कर्म के क्षय हो जाने पर पुनः कर्म उत्पन्न नहीं होते।
जहा बढाणं बीयाणं, ग जायंति पुण मंकुरा । कम्मबीएसु बढेसु, न जायंति भवंकुरा ।।
-दशाश्रुतस्कन्ध ११५ जिस तरह दग्ध (जले हुए) बीजों में से पुनः अंकुर उत्पन्न नहीं होते, उसी तरह से कर्म रूपी बीजों के दग्ध (जल) हो जाने पर भव (जन्म-मरण) के अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं।
तम्हा एएसि कम्माणं अणुभागा वियाणिया। एएसि संवरे चेव खवणे य जए बुहो ।
-उत्त० ३३३२५ अतः इन कर्मों के अनुभाग- फल देने की शक्ति को समझकर बुद्धिमान् पुरुष नये कर्मों के संचय को रोकने में तथा पुराने कर्मों के क्षय करने में सदा प्रयत्नशील रहे।
अकुब्वमो गवं गस्थि। -सूत्रकृतांग १२१५७ जो अन्तर से राग-द्वेष रूप भावकर्म नहीं करता, उसे नये कर्म का बन्ध नहीं होता।
जह य परिहाण कम्मा सिडा सिखालयमुर्वेति । . - औपपातिक सर्व कर्मों के क्षय से जीव सिद्ध (मुक्त) होकर सिद्धलोक में पहुंचता है।
आत्म-स्वरूप
[आत्मा, अनन्तमान अनन्त सुख एवं अनन्त शक्ति-सामयं का ज है। सुख-दुःख का कर्ता भी यही है, मोक्ता भी यही है, और उनसे मुक्त होने का प्रयत्न करने वाला भी यही है। मात्म-ज्ञान ही समस्त