________________
सिद्धान्त-साधना-शिक्षा | २७७ के विनवणाहिजोसिया संतिणेहि समं विवाहिया।
-सूत्र. ११२००२ जो स्त्रियों के स्नेह-राग से अभिभूत नहीं होते, वे मुक्त पुरुषों के समान है।
अपरिग्रह मुच्छा परिग्गही वृत्तो।
- दश० ॥ मूर्छा-ममता भाव परिग्रह है। जे ममाइय मइं जहाइ से जहाइ ममाइयं ।
से हु विठ्ठपहेमुणी जस्स नपि ममाइयं ॥ -आचा० १२२२६ जो ममत्वबुद्धि का परित्याग करता है, वही वस्तुत: ममत्व-परिग्रह का त्याग कर सकता है । वही मुनि वास्तव में पथ (मोक्षमार्ग) का द्रष्टा है, जो किसी भी प्रकार का ममत्वभाव नहीं रखता है।
सुवग्ण स्वस्स उ पव्यया भवे, सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुब्स्स न तेहि किचि इच्छाहु आगाससमा अणंतिया ॥
- उत्त० १४८ यदि सोने और चांदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत भी मिल जायें तो भी लोभी मनुष्य को उससे संतोष (तति) नहीं होगा, क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है।
संनिहि बन कुम्विन्या अणुमायं पि संगए ।
मुहाजीवी असंबई हविज्ज जगनिस्सिए॥ -दश० ८।२४ संयम साधना में लगा हुआ मुनि अणुमात्र भी संग्रह न करें। वह मुधाजीवी (निष्काम भाव से भिक्षा लेने वाला) है, गृहस्थों के साथ उसका स्नेह-बंधन नहीं और जगत के समस्त जीवों की रक्षा करने वाला है, फिर संग्रह क्यों करे ?
इस धर्म
मना
समावणयाए जोवे पल्हायणमा जणयह । सम्वपाण-भय-जीव-सत्तेसु मित्तीभावमुप्पाएइ ॥
-उत्तरा० २६१८ क्षमा करने से प्रल्हाद भाव-चित्त में प्रसन्नता उत्पन्न होती है। इस क्षमावृत्ति से ही समस्त जीवयोनि के प्रति मंत्रीभाव प्रकट होता है। उबसमेण हणे कोहं।
-दश० ८।३६ क्षमा से क्रोध को जीतना चाहिए।