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सिद्धान्त-साधना-शिक्षा | २६३ नाच रसवपरित पसबो तहा।
एवं मग्गमणुप्पत्ता जीवा गच्छन्ति सोग्गई। -उत्त० २८३ ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप इस मार्ग का अनुगमन करते हुए जीव सुगति को प्राप्त होते हैं।
लोक-स्वरूप
[चतुर्गति रूप संसार को लोक कहते हैं। यह लोक काल को दृष्टि से अनादि है। क्षेत्र की दृष्टि से नहां तक धर्म, अधर्म मावि पलव्य है, वहां तक सीमित (सान्त) है। उसके बाहर अलोक है। यहां पाव्यात्मक लोक के स्वरूप का विवेचन किया गया है।]
धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गल गंतवो।
एस लोगो ति पणत्तो, निहिं परवसिहि ॥ -उत्त० २८७ तत्त्व का स्पष्ट दर्शन करने वाले जिनवरों ने धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव-यह षद्रव्यात्मक लोक कहा है।
जीवा व मजीवा य एस लोए वियाहिए।
मजीव देसमागासे, अलोए से वियाहिए ॥ -उत्त० ३६२ यह लोक जीव और अजीवमय कहा गया है और जहां अजीव का एक देश (भाग) केवल आकाश है, वह अलोक कहा जाता है।
गह लक्खनो उ धम्मो, महम्मो ठाणलालगो।
मायणं सम्बवब्याणं, नहं मोगाहलक्स ॥ -उत्त. २०१९ गति (गति में हेतु) धर्म का लक्षण है। स्थिति (स्थित होने में हेतु) अधर्म का लक्षण है । सभी द्रव्यों का भाजन (आधार) अवगाह लक्षण आकाश है। बत्तणा लक्समो कालो।
-उत्त० २०१० वना (परिवर्तन) काल का लक्षण है।
११. आत्मस्वरूप के चिन्तन में मन को एकाग्र करना। १२. ध्यान आदि साधना में शरीर की आसक्ति का सम्पूर्ण त्याग कर देहातीत
भाव में रमण करना।