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सिद्धान्त-साधना-शिक्षा | २६५
कर्म-सिद्धान्त
[प्रत्येक जीव सुख चाहता है, किन्तु अनचाहे भी उसे दुःख भोगना पड़ता है। दुख का कारण है कर्म । कर्म, कृत है। यदि आत्मा अशुभ कर्म करेगा तो दुःख भोगेगा । शुभ कर्म करेगा तो सुख भोगेगा। कर्मों से पूर्ण छुटकारा पाना मुक्ति है। यहाँ कर्मबन्ध के कारण, कर्म का स्वरूप और उनसे मुक्त होने का मार्ग बताया है।)
कर्म-बंध का कारण नो इन्दियगेजा अमुत्तमावा, अमुत्तमावा विय होइ निच्चो । अज्मात्यहेउं निययस्स बंधो, संसारहेडं च वयंति बंधं ।।
-उत्त० १४११६ आत्मा अमूर्त है, इसलिए वह इन्द्रिय-ग्राह्य नहीं है। अमूर्त होने के कारण ही आत्मा नित्य है। अज्ञान आदि कारणों से ही आत्मा के कर्म-बन्धन है और कर्मबन्धन ही संसार का कारण कहलाता है।
सव्व जीवाण कम्मं तु, संगहे छदिसागयं ।
सम्वेसु वि पएसेसु, सव्वं सम्वेण बन्नगं ॥ -उत्त० ३३६१८ सर्व जीव अपने आस-पास छहों दिशाओं में रहे हुए कम-पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और आत्मा के सर्वप्रदेशों के साथ सर्व कर्मों का सर्व प्रकार से बन्धन होता है। कहं गं भंते ! जीवा गुरुमत वा लहुयत्तं वा हब्वमागच्छंति ?
-जातासूत्र ६ भंते ! यह जीव गुरुत्व (कर्मों का भारीपन) और लघुत्व (हल्कापन) कैसे प्राप्त करता है ?
जीवा वि पाणातिवाएण जाव मिच्छादसणसल्लेणं अणुपुग्वणं अट्ठ कम्म पगडीओ समज्जिणंति । जाव बेरमणेणं अपम्बेणं अट्ठ कम्म पगडोमो पवेत्ता... लहुपत्तं हवमागच्छति।।
-ज्ञातासूत्र ६ (१) प्राणातिपात (हिंसा), (२) मूठ, (३) चोरी, (४) मैथुन, (५) ममत्व, (परिग्रह), (६) कोष, (७) मान, (क) माया, (E) लोभ, (१०) राग, (११) द्वेष, (१२) कलह, (१३) दोषारोपण, (१४) चुगली, (१५) असंयम में रति (मासक्ति), (१६) संयम में अरति (अनादर), (१७) निन्दा, (कपटपूर्ण मिथ्याकथन) और (१८)