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२६. | तीर्घकर महावीर सम्यग्दर्शन का स्वरूप
तहियाणं तु मावाणं सन्मावे उपएसण ।
भावेनं सहहंतस्स सम्मत्तं तं वियाहियं ।।-उत्त० २८।१५ स्वयं ही अपने विवेक से अथवा किसी के उपदेश से सद्भूत तत्त्वों के अस्तित्व में आन्तरिक श्रद्धा-विश्वास करना सम्यक्त्व कहा गया है ।
जीवाजीवा य बन्धो य, पुण्णं पावासवो तहा ।
संवरो निन्जरा मोक्खो सन्तए तहिया नव ।। - उत्त० २८।१४ (१) जीव, (२) अजीव, (३) बन्ध, (४) पुण्य, (५) पाप, (६) मानव, (७) संवर, (८) निर्जरा और (१) मोक्ष । ये नौ तत्त्व सद्भूत पदार्थ हैं ।
परमस्य संपवो वा, सुविट्ठ परमत्य-सेवणा वा वि । वावग्णकुबंसणवन्जणा, य सम्मत्त सद्दहणा ॥
-उत्त० २८०२८ परमार्थ (परम सत्य) का संस्तव--परिचय करना, तत्त्वज्ञानी-जो परमार्थ को अच्छी तरह पा चुके हैं, उनकी सेवा करना तथा सन्मार्ग से पतित व्यक्तियों एवं कुदर्शनी (मिथ्यात्वी) से दूर रहना, सम्यक्त्व की श्रद्धा-सत्य श्रद्धा के लक्षण हैं ।
निस्संकिय निवकंखिय निन्वितिगिच्छा अमूढविट्ठी य । उवह पिरोकरणे, बच्छल्ल पभावणे अट्ठ ।।
-उत्त० २८१३१ सम्यग्दर्शन (सच्चा विश्वास) प्राप्त आत्मा में ये आठ गुण होते हैं-(१) निःशंका (निर्भयता), (२) निःकांक्षा (निष्कामता), (३) निविचिकित्सा (धर्मक्रियाओं के फल के विषय में संशयमुक्तता), (४) अमूढदृष्टि (स्वधर्म पर निष्ठा), (५) उपबृंहण (अहंकार-मुक्ति तथा गुणीजनों का आदर करना) (६) स्थिरीकरण (अपने ज्ञानयोग द्वारा दूसरों को धैर्य प्रदान करना), (७) वात्सल्य (प्रेमयोग), (८) प्रभावना (प्रवचन आदि द्वारा धर्म का द्योतन करना)। ये सम्यक्त्व के मूल बंग भी हैं। चारित्र
एवं चरितकरं चरित होई आहियं। -उत्त० २८॥३३ कर्मों के चय-राशि को रिक्त (शून्य) करने के कारण इसे चारित्र कहा गया है।