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२५८ | तीर्थंकर महावीर था तो धर्मशास्त्र पढ़ते भी कैसे ? भगवान महावीर ने अन्य क्रान्तिकारी कदमों के साथ-साथ भाषा के क्षेत्र में भी क्रान्ति की। भाषा के प्रति उनका कोई आग्रह नहीं था। उन्होंने स्पष्ट कहा
नचित्ता तायए मासा कुबो विज्जाणुसासणं । –उत्त० ६।११ विविध भाषाओं का ज्ञान और शब्द-शास्त्र मनुष्य को दुर्गति से नहीं बचा सकते। दुर्गति से रक्षा करने वाला धर्म है। अतः उन्होंने विद्वानों की भाषा को छोड़कर जन-साधारण की भाषा में धर्म का उपदेश दिया। तत्कालीन लोक-भाषा जिसे 'अर्धमागधी' कहा गया है, उसीमें भ० महावीर ने प्रवचन किया। प्रवचनों का प्रयोजन
प्रश्न होता है कि महावीर जब तीर्थकर बनकर कृत-कृत्य हो गये तो फिर उन्होंने उपदेश किसलिए दिया ? इतने उग्र विहार और जनपदों में भ्रमण कर, क्यों जन-जन को बोध देते रहे?
__ भगवान महावीर के प्रवचन का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए आर्य सुधर्मा ने बताया है-सब जग जीव रक्षण दयनुयाए भगवया पावयणं सुकहियं-जगत् के समस्त जीवों की रक्षा, दया एवं करुणा से प्रेरित होकर भगवान् ने प्रवचन किया।
महावीर का चिन्तन था-मनुष्य सुख-भोग की लालसा के वश होकर हिंसा करता है । हिंसा से कर्मबन्ध होता है, उससे दु:ख होता है। फिर दुःखों से मुक्त होने के लिए वह प्रयत्नशील बनता है। धर्म की शरण में आता है। धर्म उसे दु.खमुक्ति का मार्ग बताता है। दुःख से मुक्त होने का मार्ग है- अहिंसा (संयम)। महिंसा की सम्पूर्ण साधना के द्वारा सम्पूर्ण दुःखों से मुक्त होकर आत्मा शाश्वत सुखरूप मोक्ष को प्राप्त कर सकता है । यही उसका लक्ष्य है। इस प्रकार महावीर के सम्पूर्ण चिन्तन का अर्थ फलित हुआ
दुःख का कारण है-हिंसा। दुःख से मुक्ति पाने का साधन है-अहिंसा (संयम)।
अहिंसा द्वारा साध्य है- मोन (परम आनन्द)। संक्षेप में महावीर के सिद्धान्त व शिक्षाबों का यही सार है। इसी सार को यहां उनकी भाषा में प्रस्तुत किया जाता है।
१ कम्म मूलं च
छणं-आचारांग १६३१