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२४४ | वीर्षकर महावीर
उसने पूछा- बाप कौन हैं ? इन्द्रभूति ने कहा-मैं श्रमण हं। इधर किसलिए आये हैं? भिक्षा लेने के लिए। तो मेरे घर भी चलिए
गौतम का संकेत पाकर अतिमुक्तक उनके आगे हो गया और उन्हें सीधा अपने भवन के अन्दर रसोईघर की तरफ ले गया। श्रीदेवी ने अतिमुक्तक के साथ गणधर इन्द्रभूति को आते देखा तो वह भाव-विभोर हो गई। उसने अत्यत भक्ति के साथ भिक्षा दी । अतिमुक्तक इन्द्रभूति के साथ-साथ भगवान महावीर के पास माया। बालक की तेजस्विता और प्रबल ज्ञान-जिज्ञासा मुंह बोल रही थी। भगवान ने उसे उपदेश सुनाया। उसका मन प्रबुद्ध हो गया। माता के पास जाकर भगवान का शिष्य बनने की अनुमति मांगी । मां ने कहा-"बेटा ! अभी तुम्हारी अवस्था बहुत कच्ची है, तुम धर्म-कर्म को क्या जानते हो?"
___ "म में जो जानता हूं, वह नहीं जानता, जो नहीं जानता, वह जानता हूं।" -अतिमुक्तक ने कहा।
"बेटा | इस पहेली का क्या अर्थ ?"-मां ने पूछा
"मां ! मैं यह जानता हूं कि प्रत्येक देहधारी को एक दिन मरना है, पर कब, कैसे मरना है, यह नहीं जानता। मैं यह नहीं जानता, कोन प्राणी किन कमों के कारण नरक आदि योनियों में परिभ्रमण करता है, पर यह जानता हूं कि आत्मा अपने ही कर्मों के कारण संसार-भ्रमण करता है।"
बालक के मुंह से गंभीर-शान की बातें सुनकर माता-पिता ने सोचा- यह भन्य-आत्मा संसार की मोह-ममता में फंसने वाला नहीं है। उन्होंने समारोह पूर्वक उसे भगवान् के पास दीमित होने दिया ।'
वर्षा का सुहावना समय था। बाल मुनि अतिमुक्तक शौच के लिए स्थविर मुनियों के साथ बाहर गये। पानी की निर्मलपारा बह रही थी, हवा के झोकों से उसमें लहरें उठ रही थीं । बाल मुनि का मन भी शिशु-क्रीड़ा के लिए लहरा उठा। पाल बांधकर पानी को रोका और उसमें अपना काष्ठपात्र रखते हुए खुशी में नाचने मगे-"अहा ! यह मेरी नाव तर रही है।"
तगडदसाबो, वर्ग ( बम्पयन १५