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कल्याण-यात्रा | २४५
स्थविरों ने बाल-मुनि की यह जलक्रीड़ा देखी, वे उसकी अज्ञान-दशा पर हंस पड़े-"बाखिर बालक जो है, साध्वाचार को क्या जाने...?" स्थविर भगवान् के पास शिकायत लेकर आये और व्यंग्यपूर्वक पूछा-"भंते ! आपका बाल शिष्य अतिमुक्तक कितने भवों में सिद्धगति प्राप्त करेगा ?" ।
__भगवान ने स्थविरों को सम्बोधित कर कहा-"स्थविरो ! अतिमुक्तक इसी भव में सिद्ध होगा। उसकी आत्मा अत्यंत सरल, विनम्र और भव्य है । तुम वर्तमान में उसके मणिक प्रमाद की ओर देखकर जो निंदा एवं उपहास कर रहे हो, यह तुम्हारी भूल है, उसका अनन्त ज्ञान-दर्शनसम्पन्न उज्ज्वल भविष्य देखो।'
भगवान महावीर के संकेत ने स्थविरों की अन्तष्टि खोल दी। वे सिर्फ खुद्र वर्तमान को देख रहे थे, भगवान् ने उन्हें अनन्त भविष्य को देखने की प्रेरणा दी। यही तो उनकी दिव्यदृष्टि है जो बिन्दु में सिन्धु की सत्ता का बोध कराती है।
इस प्रकार के अन्य भी अनेक प्रसंग भगवान् महावीर के जीवन में घटित हुए, जब क्षुद्र वर्तमान की परिधि में बंधे प्राणियों को उन्होंने भविष्य के विराट् गगन में प्रतिष्ठित किया । आत्मा के रम्यस्वरूप का दर्शन कराया। अ-सुन्दर वर्तमान में भी सुन्दर भविष्य के देखने की दिव्यदृष्टि दी।
परिनिर्वाण
इस अवसर्पिणी काल में भगवान् महावीर अन्तिम तीर्थकर थे। तीर्थकर बनेक दिव्य विभूतियों तथा अतिशयों से युक्त होते हैं । वे अपने युग के सर्वोत्तम धर्मनेता, महान सत्यद्रष्टा तथा अनन्त तेजस् संपन्न आध्यात्मिक पुरुष होते हैं। तीर्थकर की अनेक विशिष्टताओं में एक विशिष्टता बताई गई है-तिमाणं तारपाणं', इस मोहकषाय युक्त संसार से स्वयं पार होते हैं तथा दूसरों को पार होने में सहायक बनते हैं।
भगवान महावीर ने अपने इस विशेषण को पूर्णतः कृतार्थ किया-यह पिछले पृष्ठों को पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है । बमण-जीवन के ४२ वर्षों में बारह वर्ष से कुछ अधिक समय तक वे स्वयं की साधना में लीन रहे, उदा तपश्चरण, मौन चिन्तन एवं ध्यान-योग द्वारा कर्म क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त किया। स्वयं भव-सागर से तिरे, नीर
१ भगवती सूत्र, शतक ५२.४