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कल्याण-यात्रा | २४३ इन घटनाओं में भगवान महावीर की दिव्य प्रेरणा का स्वर जहाँ सर्वाधिक मुखर है, वहाँ एक अनुस्वर और भी गूंज रहा है
अर्जुन के संस्कार परिवर्तन में सुदर्शन का योग। रोहिणेय के संस्कार-परिवर्तन में अभय का योग । भाद्रंक के संस्कार-जागरण में भी अभय का योग ।
किरातराज के संस्कार-निर्माण में जिनदेव का योग । इन श्रमणोपासकों की भूमिका भी यह सूचन करती है कि महावीर के अनुयायी न केवल श्रद्धाशील विरक्त वृत्ति वाले व्यक्ति थे, किन्तु श्रद्धा के साथ तत्त्वचिंतन, आत्मबल, साहस, नीतिकुशलता, स्वदेश-प्रेम और वाक्चातुर्य से संपन्न भी थे । धर्म-संघ के विस्तार-विकास में, और भगवान महावीर के संस्कार-शुद्धि सिद्धान्त के प्रसार में उनका भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।
बिन्दु में सिंधु की सत्ता
(अतिमुक्तक को मुक्ति) भगवान महावीर अपने उपदेशों में प्रायः इस बात पर बल दिया करते थे कि प्रत्येक आत्मा अनन्तशक्ति का स्रोत है। जैसी अनन्त आत्मशक्ति तीयंकर की आत्मा में है, वैसी ही अनन्त आत्मशक्ति का स्रोत एक अबोध बालक की आत्मा में भी है, प्रत्येक बीज में महावृक्ष का अस्तित्व विद्यमान है, प्रत्येक बिन्दु में सिंधु की सत्ता छिपी है । अपेक्षा उसके विस्तार व विकास की है। भगवान का यह भी उपदेश था कि-वर्तमान में किसी आत्मा की बज्ञान व प्रमादमय प्रवृत्ति को देखकर उसका उपहास नहीं करना चाहिए, किंतु उसकी आत्मा में छिपी अनन्त ज्ञानचेतना को लक्ष्य कर उसके शुद्ध व उज्ज्वल स्वरूप का दर्शन करना चाहिए । भगवान महावीर वर्तमान के द्रष्टामात्र नहीं, किंतु अनन्त भविष्य के द्रष्टा थे। उनकी इस दिव्यदृष्टि के स्वरूप को स्पष्ट करने वाला एक रोचक प्रसंग है
पोलासपुर में विजय राजा की श्रीदेवी नाम की रानी थी। उनका एक पुत्र था-प्रतिमुक्तक । एक बार भगवान महावीर पोलासपुर में पधारे। गणधर इन्द्रभूति भिक्षापं पर्यटन करते हुए राजभवन की ओर निकल गये । राजकुमार पतिमुक्तक बच्चों के साथ क्रीड़ा कर रहा था । इन्द्रभूति को आते देखकर अतिमुक्तक को बड़ा कुतूहल हुआ।