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२४२ | तीर्थकर महावीर
जिनदेव के साथ किरातराज साकेत आया। जिनदेव ने उसका बड़ा ही भातिथ्य-सत्कार किया।
उसी प्रसंग पर भगवान महावीर विहार करते हुए साकेत में पधारे ।' नगर में अपूर्व उत्साह उमड़ पड़ा । हजारों नर-नारी उद्यान की ओर जाने लगे । यह चहल. पहल देखकर किरातराज ने जिनदेव से पूछा-"क्या आज कोई महोत्सव है ?"
जिनदेव ने कहा-"आज यहाँ रत्नों के सबसे बड़े व्यापारी आये हैं, संसार में सबसे मूल्यवान रत्न उन्हीं के पास हैं।"
किरातराज की जिज्ञासा प्रबल हो उठी-"सार्थवाह ! तब तो यह बहुत ही अच्छा प्रसंग है, हम भी चलें और बढ़िया-से-बढ़िया रत्नों को देखें, खरीदें।"
जिनदेव किरातराज को साथ लेकर भगवान् के समवसरण में आया । समवसरण की दिव्य रचना और भगवान् का अतिशय देखकर किरातराज चकित हो गया। उसने भगवान् के निकट आकर पूछा-"महानुभाव ! आपके पास कितने प्रकार के रत्न हैं ? उनका मूल्य आदि क्या है ?"
सरलमना किरातराज को सम्बोधित कर भगवान ने बताया- "रत्न दो प्रकार के होते हैं-भाव रल और द्रव्य रत्न ! द्रव्य रत्न जड़ व नश्वर होते हैं, भाव रत्न सचेतन और शाश्वत हैं।"
किरातराज-"मुझे भाव रत्न के विषय में ही बताइए।"
भगवान ने भाव रल-जान, दर्शन एवं चारित्र (रत्नत्रय) के सम्बन्ध में विस्तार से प्रकाश डाला, किरातराज मुग्धभाव से सुनते रहे। भगवान् ने अंत में कहा-"इन रत्नों को धारण करने वालों के समस्त कष्ट और दुःख दूर हो जाते हैं।"
किरातराज भगवान् का प्रवचन सुनकर संतुष्ट हुआ, उसके संस्कार बदल गये, जड़ रत्नों की खोज करते-करते उसे दिव्य रत्न मिल गये। प्रतिबुद्ध हो भगवान के पास भाव रत्न की भिक्षा मांगी, और वह श्रमणधर्म में प्रवजित हो गया।
संस्कार परिवर्तन की ये कुछ घटनाएं अपने आप में अनोखी हैं । संस्कार की शुखि हृदय-परिवर्तन से ही संभव है और वह हृदय-परिवर्तन मनुष्य के अन्तःकरण की जागृति से होता है।
दीक्षा का ३६ वा वर्ष, वि.पू. ९७७-९७६ २ मावश्यक नियुक्ति, गावा १३०५