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१७२ | तीर्थंकर महावीर जीवन का पन्द्रहवां वर्ष चल रहा था। एक दिन रात्रि के अंतिम प्रहर में, शांत एवं नीरव वातावरण में आत्म-चिन्तन करते हुए आनन्द के मन में एक शुभ संकल्प बगा"मैं अब तक नगर के सभी राजकीय एवं सामाजिक कार्यों में अग्रणी रहा हूं. उन प्रवृत्तियों में प्रमुख रूप से भाग लेता रहा हूं, इस कारण मेरा जीवन बायोन्मुखी अधिक रहा है, मैं चाहते हुए भी अन्तर्मुखी एवं निवृत्त जीवन-यापन नहीं कर पाता, भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट धर्म-प्राप्ति (निवृत्त-साधना) स्वीकार करने में भी असमर्थ रहा । अब वृद्ध हो गया हूं, इसलिए मुझे प्रवृत्तियों के भार को कम करके निवृत्ति एवं शांति-परायण जीवन जीना चाहिये । परिवार, व्यापार, समाज एवं राष्ट्र के सब उत्तरदायित्व अपने ज्येष्ठ पुत्र को संभलाकर मुझे एकांत जीवन बिताना चाहिए ।"
अपने संकल्प के अनुसार प्रातःकाल होने पर आनन्द ने समस्त जाति-बन्धुओं को, मित्रों को और नगर के प्रमुख व्यक्तियों को भोजन के लिए निमंत्रित किया। भोजन आदि द्वारा सत्कार-सम्मान देकर उनकी सभा में रात्रि में किये हुए अपने मानसिक संकल्प को प्रकट किया।
आनन्द के निवृत्ति-प्रधान संकल्प की सभी स्वजनों ने सराहना की। उसने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का सब भार सौंपा । पुत्र की अनुमति लेकर कोल्लाग सनिवेश में स्थित ज्ञातकुल की पौषधशाला में चला गया।
पौषधशाला के एकांत-शांत वातावरण में आनन्द का अन्तर्हृदय प्रफुल्लित हो गया। उसने अपने आवश्यक दैहिक कार्यों के निमित्त उच्चार-प्रश्रवण की भूमि आदि देख ली, दर्भ (घास) का एक बिस्तर (संथारा) बिछा लिया और सादा श्रमण-जैसा परिधान पहनकर श्रमण की भांति ही जीवन-चर्या बिताने लगा। क्रमशः आनन्द ने भगवान महावीर द्वारा कथित श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं स्वीकार की । ध्यानस्वाध्याय-चिन्तन-तपश्चरण आदि पूर्ण विधि के अनुसार श्रावक प्रतिमाओं की सफल बाराधना की । इस दीर्घकालीन तपश्चर्या से उसका शरीर सूख गया, शक्ति और बल क्षीण हो गया तथा देह अस्थि-पंजर मात्र रह गया । फिर भी उसकी धर्म-चेतना जागत थी, आत्म-बल प्रदीप्त था। एक दिन धर्म-जागरण करते हुए आनन्द ने सोचा"अब मेरा शरीर अस्थि-पंजर मात्र रह गया है। रक्त-मांस सूख गये हैं, फिर भी अभी तक मुझ में उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार, पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संवेग हैं।' अतः अब मुझे प्रातःकाल होने पर जीवन-पर्यन्त के लिए भक्तपान
१ये सब मारम-बल के लक्षण है, यदि गरीर-पल कीण हो चुका है, किन्तु मात्म-बल जीवित है।