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कल्याण-यात्रा | २०॥ परिव्राजकों के साथ परिचर्चा
[सत्योन्मुखी जिज्ञासा] प्राचीन समय में गृहत्याग कर प्रवजित होने वाले भिक्ष क अपनी परम्परा. गत विधि के अनुसार विभिन्न नामों से पुकारे जाते थे। निम्रन्य, शाक्य और आजीबक आदि भिक्षुक 'श्रमण' कहलाते थे। 'श्रमण' शब्द वेद-विरोधी अथवा यज्ञविरोधी संस्था का सूचक बन गया था। वैदिक यज्ञ-याग आदि कर्मकांडों में विश्वास रखने वाले तथा वेद-उपनिषद् आदि के अभ्यासी भिक्षक, संन्यासी अथवा परिव्राजक कहलाते थे। दोनों परम्पराएं धार्मिक विश्वास एवं क्रिया-विधि में काफी भिन्न होते हुए भी निवृत्ति-प्रधान थीं तथा मोम एवं आत्म-शान की उन्मुखता दोनों में ही थी। इस कारण इन विविध-परम्परागों के भिक्ष ओं में अपनी धार्मिक निष्ठा का बाहुल्य होते हुए भी अन्य धार्मिकों (तीथिकों) के प्रति अनादर एवं आक्रोश का भाव कम था एवं एक प्रकार की सत्योन्मुखी जिज्ञासा का प्राबल्य था। उस युग की घटनाओं का पर्यवेक्षण करने पर यह धारणा और भी दृढ़ हो जाती है कि उस युग के उच्चकोटि के विद्वान् चाहे वे वैदिक-परम्परा के रहे हों या श्रमण-परम्परा के, उनके अन्तर में सत्य की बलवती जिज्ञासा थी, अनाग्रह बुद्धि थी । यथार्थ का अनुभव होने पर वे अपनी परम्परा और धारणा का जड़-आग्रह नहीं रखते थे। वे साम्प्रदायिक व्यामोह से दूर, सत्य के लिए समर्पित जीवन जीते थे। इन्द्रभूति गौतम जैसे ग्यारह दिग्गज वैदिक विद्वानों द्वारा भगवान् महावीर का शिष्यत्व स्वीकार कर निग्रन्थ-प्रवचन में दीक्षित हो जाना-सत्य की जिज्ञासा का एक श्रेष्ठ तथा अविस्मरणीय प्रकरण है। वे विद्वान् गृहस्थ थे। अनेक परिव्राजक (वैदिक-भिम क) भी समय-समय पर भगवान् महावीर के तत्त्व-ज्ञान से प्रभावित होकर उनके निकट आये, तत्त्व-चर्चा कर पूर्वाग्रहों से मुक्त हुए, कुछ श्रमणोपासक बने और कुछ श्रमण ही बन गए- इस प्रकार के अनेक घटना-प्रसंग तीर्थंकर महावीर के जीवन में घटित हुए, जिनमें से कुछ प्रसंगों की चर्चा यहाँ की जाती है। पुद्गल परिव्राजक
आलंभिका नगरी' के शंखवन में पुद्गल नाम का एक परिवाजक रहता था। पुद्गल विद्वान् भी था और तपस्वी भी । वह ऋग्वेद का गहन अभ्यासी था और दोदो दिन का उपवास करके सूर्य के सन्मुख ऊर्ध्वबाहू खड़ा होकर आतापना आदि भी लेता था। पुद्गल बड़ा सरल और भद्रप्रकृति था। हृदय की सरलता एवं तपोजन्य
१यह काशी देश को प्रसिद्ध नगरी थी।