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२०६ | तीर्थंकर महावीर
कृतकृत्य हुए। उन्हें स्कन्दक के साथ एक अज्ञात समानता का अनुभव होने लगा। पूछा-"क्या स्कन्दक (मेरी भांति ही) आपका शिष्य बन सकेगा? क्या उसकी जिज्ञासा में भी वह जागृति है, उसके ज्ञान में यह पात्रता है ?"
गौतम के प्रश्न का समाधान देते हुए प्रभु ने कहा--"हां, गौतम । स्कन्दक में भी वह योग्यता है, श्रमणधर्म को स्वीकार कर वह परमपद-निर्वाण को भी प्राप्त कर सकेगा।"
वार्तालाप चल ही रहा था कि स्कन्दक भगवान् के समवसरण के निकट बा गया। उसे देखते ही गौतम उठे, कुछ कदम सामने गए। प्रसन्नमुद्रा में बोले"मागध ! आप आ गए ! स्वागत है सत्य की समर्थ जिज्ञासा का।"
गौतम की वाणी से आत्मीयता के मधुर स्वर मुखरित हो रहे थे, जिनकी स्नेहाता से स्कन्दक प्रथम क्षण ही भाव-विभोर होकर अत्यंत अपनत्व का अनुभव करने लगा। गौतम ने पूछा-"मागध ! क्या यह सच है कि पिंगलक निर्गन्थ ने तुमसे
लोक सान्त है या अनन्त ? जीव सान्त है या भनन्त ? सिद्धि (मोन).सान्त है या अनन्त ? सिद्ध (मुक्त वात्मा) सान्त है या अनन्त ?
किस मरण को प्राप्त करने से भव-परम्परा बढ़ती तथा घटती है ?
ये पांच प्रश्न पूछे और इनका उत्तर दे पाने में अपनी असमर्थता देखकर तुम भगवान महावीर के निकट समाधान पाने आये हो ?"
आश्चर्यचकित स्कन्दक ने कहा-"श्रमणवर ! आपका कथन बिल्कुल सत्य है । पर ऐसा कौन ज्ञानी व तपस्वी है, जिसने मेरे गुप्त मनोभावों को जाना ?"
गौतम ने भगवान महावीर की ओर संकेत करते हुए कहा-"मेरे धर्माचार्य भगवान महावीर ही ऐसे ज्ञानी व तपस्वी हैं । ये तीन काल के समस्त भावों को जानने, देखने में सर्वथा समर्थ हैं।"
स्कन्दक-"अच्छा ! तब चलिये, सर्वप्रथम उन्हीं महापुरुष की वन्दना कर लूं।"
स्कन्दक गौतम के साथ भगवान महावीर के समक्ष आया । भगवान के दिव्य, बलौकिक रूप व बोज-तेजयुक्त मुखमंडल को देखकर वह विमुग्ध हो गया। प्रभु के दर्शनमात्र से ही उसका हृदय बदा-विभोर हो गया। वह समस्त विकल्पों को भूल गया और हवेग के साथ प्रभु-परणों में विनत हो गया।