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कल्याण-यात्रा | २३० कारण हजारों श्रद्धालु दर्शन करने की उत्सुकता लिए भी मन मारे बैठे रहे । सुदर्शन नाम के एक दृढ़ श्रद्धालु श्रावक ने भगवान महावीर के दर्शन हेतु उद्यान की बोर जाने का निश्चय किया। अपने संकल्प बल का सहारा लेकर वह नगरवार के बाहर निकला।
सुनसान गलियों में जैसे मौत नाच रही थी, किन्तु अभयमूर्ति सुदर्शन हड़ता के साथ आगे बढ़ा। बहुत दिनों के बाद मनुष्य को आया देखकर अर्जुन उन्मत्त की भांति मुद्गर लेकर उस ओर लपका। सुदर्शन वहीं ध्यानस्थ खड़ा हो गया। अर्जुन का मुद्गर उठा का उठा रह गया। सुदर्शन की सौम्यता के समक्ष अर्जुन की क्रूरता परास्त हो गई। वह स्तब्ध हुआ, फिर गिर पड़ा। सुदर्शन ने उसे उठाया. उसकी क्रूरता और दानवता को करुणा और स्नेह के हाथों से दुलारा । अर्जुन सुदर्शन के चरणों में गिर पड़ा-अपने क्रूर कर्मों पर पश्चात्ताप करता हुआ।
सुदर्शन ने कहा- "अर्जुन ! घबराओ नहीं ! तुम भी मनुष्य हो। तुम्हारे रक्त में दानवता के संस्कार घुस गये थे, इसी कारण तुमने सैकड़ों निरपराध प्राणियों की हत्या कर डाली, अब तुम प्रबुद्ध हुए हो, तुम्हारे दानवीय संस्करों में परिवर्तन भाया है, चलो, मैं तुम्हें हमारे कल्याणद्रष्टा देवाधिदेव के पास ले चलू।"
अर्जुन सुदर्शन के साथ-साथ भगवान् महावीर के समक्ष आया। प्रभु ने हृदयग्राही उपदेश-वृष्टि की। अर्जुन के रक्त की दानवीय ऊष्मा शांत हई, करुणा की रसधारा फूट पड़ी । पश्चात्ताप के आंसू बहाकर उसने प्रभु के समक्ष प्रायश्चित्त किया और उसी क्षण कठोर मुनिचर्या स्वीकार कर ली।
अर्जुनमुनि को देखकर लोग आवेश में आ जाते । "यही है हमारे प्रिय स्वजन-मित्रों का हत्यारा!" स्थान-स्थान पर लोग उसे मारते-पीटते, त्रास देते। भगवान महावीर ने अर्जुन को शिक्षामन्त्र दिया था - तितिक्वं परमं नच्चातितिक्षा ही परम धर्म है । अर्जुन ने इस मंत्र को साकार बनाया और छह मास की कठोर तपश्चर्या के बाद अनशन कर सब कर्मों से मुक्त हो, सिद्ध-बुद्ध दशा को प्राप्त हा।
अर्जुन जन्मना आर्य था, किन्तु उसमें अनार्यता के कर संस्कार घुस गये थे। क्रूरता के उस दैत्य को समता का देवता बनाया-- भगवान् महावीर ने संस्कारशुद्धि की प्रक्रिया द्वारा।
१तगडबसाबो, वर्ष ६