________________
कल्याण-यात्रा | २५ "भते ! उससे क्या फल होता है ?" "अनाव होता है-कर्मबन्धन के हेतु राग-द्वेष क्षीण हो जाते हैं।" "भंते ! उससे क्या फल होता है ?" "तप करने की यथार्य क्षमता का विकास होता है।" "भंते ! उससे क्या फल होता है ?" "पूर्व संचित कर्म-मल क्षीण हो जाते हैं।" "भंते ! उससे क्या फल होता है ?" "मात्मा की अस्थिरता विच्छिन्न होती है, शाश्वत स्थिरता प्राप्त होती है।" "भंते ! उससे क्या फल होता है ?" 'सिद्धि प्राप्त होती है, आत्म-स्वरूप की पूर्ण उपलब्धि होती है।"
भगवान महावीर के समक्ष गौतम एवं अन्य जिज्ञासुओं द्वारा समय-समय पर पूछे गये कुछ जिज्ञासापूर्ण प्रश्नों की चर्चा यहाँ प्रस्तुत की गई है । इस प्रकार की ज्ञान-गोष्ठियों के माध्यम से भगवान के परिपावं में तत्त्वज्ञान एवं अध्यात्म का अजनस्रोत बहता रहता था।
संस्कार-शुद्धि
यह तो बताया जा चुका है कि भगवान महावीर देहवादी नहीं, आत्मवादी थे । जन्मवादी नहीं, कर्मवादी थे, अर्थात् किसी भी प्राणी की उच्चता-नीचता शरीर व जन्म से नहीं, किन्तु आत्मा व कर्म से मानते थे। शूद्र, अनार्य तथा म्लेच्छ कुल में जन्म लेकर भी व्यक्ति अपने श्रेष्ठ कर्मों के कारण, उच्च आचरण के कारण महान बन सकता है, यह महावीर का दृढ़ विश्वास ही नहीं, किन्तु जीवन के पद-पद पर साकार होता सिद्धान्त है । वे मानते थे व्यक्ति कर्म (आचरण) से ही तो शूद्र होता है, कर्म (आचरण) से ही ब्राह्मण । इसलिए वे व्यक्ति के शरीर को नहीं देखते थे कि यह किस कुल में, किस देश व जाति में जन्मा है, किन्तु वे उसकी आत्मा को, संस्कारों को देखते थे। अनार्यदेश में जन्मे हुए, अनार्य कुल में जन्मे हुए और अनार्य-संस्कारों में पले हुए- व्यक्तियों के संस्कारों को बदलकर उन्होंने उन्हें शुरु बार्यत्व व नियंग्यता प्रदान की, उनकी अनेक जीवन-घटनाएं इस तथ्य की स्वयंभू प्रमाण हैं। उन घटनाओं में न सिर्फ एक ऐतिहासिक रोचकता है, किन्तु महावीर
१ भगवती सूत्र, शतक २, उद्देशक ३