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२३८ | तीर्थकर महावीर रोहिणेय चोर : एक वचन से हत्य-परिवर्तन
राजगृह के वैभारपर्वत की उपत्यकाओं में एक चोर रहता था-लोहख़र ! बड़ा भयानक ! बड़ा दुर्दान्त ! पीढ़ियों से चौर्यकर्म करता आ रहा था वह !
लोहखुर का पुत्र था-रोहिणेय ! बाप से बेटा सवाया। चौर्यकर्म में बड़ा ही निपुण, दुर्दान्त ! लोहखुर ने मरते समय पुत्र से कहा-"पुत्र ! मेरी प्रतिष्ठा को तुम सदा बढ़ाते रहोगे, यह तो मुझे विश्वास है, तुम अपने धंधे में मुझसे भी अधिक चतुर हो, अधिक साहसी! हां; किन्तु एक बात का ध्यान रखना। राजगृह में महावीर बार-बार आते हैं, लोगों को अपने उपदेशों द्वारा भरमाते रहते हैं, तुम कभी उनके निकट मत जाना, उनकी वाणी मत सुनना, बस यही मेरी अंतिम सीख है।"
पिता की आज्ञानुसार रोहिणेय भगवान महावीर के समवसरण से सदा दूरदूर रहता । खुलकर चोरियां करता, अत्याचार करता। राजगृह में रोहिणेय का भयानक आतंक छा रहा था, नगरवासी उसके आक्रमणों से संत्रस्त हो उठे थे। सभी ने महाराज श्रेणिक के पास अपनी व्यथा सुनाई । श्रेणिक ने दस्युराज रोहिणेय को पकड़ने के हजारों उपाय किये, पर सब व्यर्थ ! रोहिणेय किसी की पकड़ में नहीं आया।
उन्हीं दिनों भगवान् महावीर का समवसरण राजगृह के उद्यान में था। रोहिणेय एक दिन उधर से निकला तो भगवान की देशना हो रही थी। उसने कानों में अंगुली डाल ली, तभी उसके पैर में एक तीखा कांटा चुभ गया। कांटा निकालने के लिए उसने हाथ, पैर की तरफ बढ़ाया, तब महावीर के कुछ शब्द उसके कानों में पड़े-"देवताओं के चरण पृथ्वी को नहीं छुते, उनके नेत्र निनिमेष रहते हैं । उनका शरीर स्वेद रहित तथा पुष्पमाला सदा विकसित बनी रहती है।"
- ये शब्द सुनते ही रोहिणेय बेचन हो गया। वह बार-बार उन्हें भूलने की चेष्टा करता, पर ज्यों-ज्यों भूलने का प्रयत्ल किया, त्यों-त्यों उनकी स्मृति पक्की हो गई।
राजगृह की प्रजा रोहिणेय के पास से व्याकुल हो उठी थी। मगध के शासनतंत्र के नाकों में दम बा गया, पर रोहिणेय नहीं पकड़ा गया। आखिर एक दिन अभयकुमार की योजना के अनुसार रोहिणेय पकड़ा तो गया, पर सादी नागरिक वेश-भूषा में, खाली हाथ । अब तक चोरी का माल न पकड़ा जाय और न कोई अपराध सिद्ध हो, तब तक उसे दंड भी कैसे दिया जाय?