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कल्याण-यात्रा | २०७ भगवान महावीर ने स्कन्दक के संशयों का सापेक्षवाद की (द्रव्य तथा भाव की अपेक्षा) प्ररूपण-पद्धति से समाधान किया।'
अपने समस्त प्रश्नों का समाधान पाकर स्कन्दक का हृदय प्रतिबुद्ध हो उठा। उसने निर्गन्य धर्म का उपदेश व आचार सुना । उस पर श्रद्धा हुई, चलने का हड़ संकल्प जगा और श्रद्धापूरित भाषा में वह बोला-"भगवन् ! यह संसार अग्निज्वालाओं में झुलसते हुए घर के समान है। जलते घर में से जो भी सारभूत पदार्थ है, उसे लेकर गृह-स्वामी बाहर निकल आता है । भगवन् ! इस जन्म-मृत्यु की अग्नि से जलते हुए संसार दावानल में से मैं भी अपनी आत्मा को बचाना चाहता हूं-यही मेरा सर्वस्व है।"
भगवान् ने कहा-"स्कन्दक ! जिस प्रकार तुम्हारी आत्मा को सुख व हित हो, वैसा करो।"
स्कन्दक ने परिव्राजक परिवेश का त्याग कर श्रमण-आचार को स्वीकार किया। स्कन्दक श्रमण बन गया। उसने ग्यारह अंग-शास्त्रों का अध्ययन किया। भिक्ष की बारह प्रतिमाएं तथा गुण-रत्न संवत्सर आदि तप का आराधन कर उसने समाधिमरण प्राप्त किया। शिव राजर्षि का संशय-निवारण
समय-समय पर अपनी शंकाओं का निवारण कर सत्य का दर्शन करने वाले जिज्ञासु परिव्राजकों के दो प्रसंग यहां आ चुके हैं, अन्य भी अनेक जिज्ञासु परिव्राजक भगवान के सानिध्य में आते रहे हैं। उनमें से एक थे-शिव राजर्षि ।
शिव हस्तिनापुर के राजा थे। बड़े संतोषी, धर्म-प्रेमी ! संसार से वैराग्य होने पर राज्य त्याग कर वे दिशा-प्रोक्षक तापस बन गए और उग्र तप करने लगे । कठिन तपश्चरण के कारण उन्हें विभंग ज्ञान प्राप्त हुआ, जिससे वे सात समुद्र व सात दीपों तक देखने-जानने लगे।
यह शान-दृष्टि प्राप्त होने पर शिवराजर्षि अपनी तपोभूमि से उठकर हस्तिनापुर में गए और वहां के लोगों से कहने लगे-"संसार भर में सात द्वीप व सात समुद्र ही हैं, बस इतना ही विशाल है-यह विश्व ।"
जिस समय भगवान महावीर हस्तिनापुर में आये', वहाँ शिवराजर्षि अपने
१ स्कन्दक की पर्चा देखिए 'भान गोष्ठिया' प्रकरण में। २ विशिष्ट विवरण के लिए देखिये-'भगवती-सूत्र' शतक २ उद्देशक १ । ३ दीखा का अठाईसा वर्ष, वि. पू. ४८५-४६४।