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कल्याण-यात्रा | २२१ "हां, हो गया"-शिष्यों ने कहा।
जमालि उठा, देखा तो बिछौना पूरा हुआ नहीं था। शिष्यों के उत्तर से जमालि की विचारधारा में एक तूफान बड़ा हो गया। वह हठपूर्वक किये गये तपश्चरण से पहले ही क्लांत हो रहा था, बीमारी से व्याकुलता बढ़ गई थी, मानसिक समाधि भंग हो गई थी, भीतर-ही-भीतर उसे तप की निरर्थकता और कठोर साध्वाचार की अनुपयोगिता अनुभव होने लगी थी। पर, ऐसा कहे तो कैसे ? मन की इस छटपटाहट को आज शिष्यों के उत्तर ने दूसरी ओर मोड़ दिया। महावीर के सिद्धान्तों के प्रति उसके मन में विरोध का स्वर उठा-"महावीर कहते हैं किया जाने लगा सो किया, (कडेमाणे कर) किन्तु मैं देखता हूं यह सिद्धान्त जीवनव्यवहार में अनुपयोगी है, असत्य है। जब तक कोई कार्य पूरा नहीं हो जाता, उसे किया (कडे) नहीं कहना चाहिए। जब तक संस्तारक बिछाया नहीं जाता, उसे बिछा मानकर क्या हम उस पर सो सकते हैं ? नहीं !" जमालि ने अपने तर्क के साथ शिष्यों को सम्बोधित किया।
कुछ श्रमण, जो जमालि के प्रति अनुराग रखते थे और उसके वचनों पर श्रद्धा करते थे, वे इस तर्क से सहमत हो गए, किन्तु कुछ स्थविरों ने जमालि के तर्क का प्रतिरोध भी किया-"बार्य ! भगवान् महावीर का कथन निश्चयनय पर प्रतिष्ठित है। जिस क्रिया को प्रारम्भ कर दिया, वह उसी समय से निप्पन्न होनी भी शुरु हो गई। चूंकि कोई भी क्रिया अपनी पूर्ववर्ती क्रियापर्याय से सर्वथा भिन्न नहीं हो सकती और न उत्तरक्रिया पूर्वक्रिया से सर्वथा भिन्न होती है। वास्तव में क्रियाकाल और कार्यकाल (निष्ठाकाल) दो भिन्न नहीं होते। अतः भगवान महावीर का कथन सत्य है, उसका अपलाप न करें।"
जमालि ने स्थविरों की बात का विरोध किया। स्थविर जमालि को छोड़कर भगवान महावीर के पास चले आये।
_स्वस्थ होने पर जमालि ने श्रावस्ती से प्रस्थान कर दिया। पर, अब वह अपने नये सिद्धान्त की चर्चा हर जगह करता रहा। उसके प्रचार में आत्मश्लाघा मुख्य बन गई. सत्यद्रष्टा महावीर की संस्तुति अब उसे सहन कैसे होती?
अपने नये सिद्धान्त का प्रचार करते हए जमालि चंपानगरी में आया। भगवान् महावीर भी तब चम्पा के पूर्णभद्र चत्य में ठहरे हुए थे। जमालि उनके पास माया, कुछ दूर बना रहकर बोला-"देवानुप्रिय ! आपके अनेक शिष्य छमस्थ