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कल्याण-यात्रा | २१९ भगवान् के संकेतानुसार सिंह बनगार मेंढिय ग्राम में गये, रेवती से उन्होंने बीजोरापाक की याचना की। रेवती ने प्रसन्नतापूर्वक बीजोरापाक मुनि को दिया। इस शुभ भाव युक्त उत्तम औषधिदान से रेवती ने अपना मनुष्य-जन्म सफल कर लिया।
औषधि-सेवन से धीरे-धीरे भगवान महावीर पुनः स्वस्थ हो गए और पूर्व की भांति सुखपूर्वक विहार करने लगे।
इस प्रकार गौशालक द्वारा दिया गया कष्ट शांत हुआ।
गौशालक ने भगवान के साथ रहकर तया बाद में पृथक् होकर उनके प्रति कृतघ्नता और विद्रोह का जैसा आचरण किया वह एक प्रकार से अत्यंत निकृष्ट आचरण था।' साथ ही दुःखद व आश्चर्यकारी भी। एक सामान्य व्यक्ति तीर्थकर जैसे लोकोत्तर पुरुष को भी इस प्रकार पीड़ा एवं संत्रास देने का दुस्साहस करे, यह जैनपरम्परा के इतिहास में महान् आश्चर्य माना गया है। दूसरी ओर करुणावतार समतायोगी महावीर, जिन्हें प्रारंभ से ही उस कृतघ्न व्यक्ति के उपद्रवों से पाला पड़ा, पर फिर भी वे सदा निष्कामभाव से उसकी हितकामना करते रहे। तेजोलेश्या से बाह्य शरीर को झुलसा देने पर भी उसके कल्याण की कामना की और मन को प्रसन्न रखा । यही तो है लोकोत्तर पुरुषों का उज्ज्वल आदर्श ।
जमालि, मतभेद की राह पर भगवान् महावीर को अपने तीर्थकर जीवन में जहाँ सर्वत्र सद्भाव, सन्मान एवं सौमनस्य के फूल खिले मिले; वहां, गौशालक एवं जमालि जैसे शिष्यों द्वारा पीड़ा एवं परिताप के झूल भी बिखेरे गये। गोशालक ने गुरुद्रोह के साथ-साथ महावीर की हत्या करने का भी दुष्ट प्रयत्न किया, वहां जमालि ने इतनी निकृष्टता तो नहीं दिखाई, पर वह भी अपने को महावीर के समान जिन और तीर्थकर कहकर एक प्रतिस्पर्धी के रूप में अवश्य सामने आया।
जमालि भगवान् महावीर का भानजा भी था और जामाता भी। वह
१ गौशालक की निकृष्ट वृत्तियों से क्षुब्ध होकर तथागत बुद्ध ने भी स्थान-स्थान पर गौशालक
को निकृष्ट और दुर्जन कहा है । जैसे-"मंबलि गौशालक से अधिक दुर्जन मेरी दृष्टि में कोई नहीं है" ( अंगुत्तरनिकाय ११४:५) देखें आगम और विपिटक : एक अनुशीलन पृष्ठ ३०)।