________________
कल्यान यात्रा | २११ अपने सौ रूप बना कर सौ घरों में रहता और भोजन करता हबा लोगों को माश्चर्यचकित करता है। वह हरी बनस्पति का बेदन-भेदन और स्पर्श तक नहीं करता तथा अर्हन्तों (निर्गन्यों) का अनन्य भक्त है।"
इस प्रकार हम देखते हैं कि वैदिक परम्परा के प्रमुख धर्मनेता और विद्वानों में भगवान् महावीर की सर्वज्ञता तथा वीतरागता के प्रति एक अपूर्व बाकर्षण और आस्था का वातावरण बन गया था, जिस कारण वे उनकी ओर खिचे हुए आये और उनका शिष्यत्व स्वीकार किया। सोमिल जो मगध (वाणिज्यग्राम) का प्रसिद्ध वेदवेदांग का पंडित था, वह भी भगवान महावीर के पास आकर तत्त्वचर्चा करके श्रमणोपासक बना, जिसकी चर्चा मानगोष्ठी प्रकरण में दी गई है।
गौशालक का उपद्रव
फूल के साथ कांटा भी जन्म लेता है, चन्दन के साथ भुजंग भी लिपटे रहते है, प्रकाश के पीछे-पीछे अन्धकार भी चला आता है, गुण के पीछे अवगुण भी चलते हैं और सज्जनों के पीछे दुर्जन भी अपनी करतूतें दिखाते रहते हैं । भगवान पायनाथ को कष्ट व संकटों से उत्पीड़ित करने की कुचेष्टा करनेवाला 'कमळ' भी संसार में आया तो भगवान् महावीर को संत्रास देनेवाले 'संगम' और 'गौशालक' भी इस संसार में पैदा हुए । लगता है भलाई के पीछे पुराई का, साधुता के पीछे असाधुता का कोई क्रम संसार में प्रायः चलता ही रहा है।
पाश्चर्य की बात है कि विश्ववत्सल भगवान् महावीर के जीवन में जहाँ उत्कट अहिंसा, परम करुणा और प्राणिमात्र के प्रति असीम हितकांक्षा की मधुर, सरस त्रिवेणी बहती थी, वहां उन पर देष-वमनस्य से पूर्ण अत्यन्त क्रूर व प्राणघातक आक्रमण करने वाले भी पैदा होते रहे। साधकजीवन में अनेक प्राणांतक कष्ट सहे सो तो सहे ही, तीपंकर जीवन में भी उन्हें गौशालक जैसे गुरुद्रोही के बाक्रमण का शिकार होना पड़ा। इतिहास का यह एक आश्चर्यकारी तथा हृदयद्रावक प्रसंग है।
भगवान महावीर के जीवन का ५७वां वर्ष अर्थात् दीक्षा-जीवन का सत्ताईसवां वर्ष (वि० पू० ४८६) उनके लिए सबसे कठिन और कष्टपूर्ण सिख हुमा । यद्यपि वे वीतराग पुरुष थे, इसलिए मानसिक संक्लेश की स्थिति से तो पूर्णतः मुक्त थे, किन्तु फिर भी इस अवधि में उनके धर्मसंघ को भी काफी क्षति उठानी पड़ी और स्वयं