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कल्याण-यात्रा | १५ को वेदना हुई, वह अहिंसा-सत्य के उपासक के लिये उचित नहीं थी। भगवान के संकेतानुसार तुम्हें उसका प्रायश्चित कर अपने सत्य प्रत की शुद्धि करनी चाहिये ।"
गौतम के द्वारा भगवान् का संदेश सुनकर महाशतक का हृदय गद्गद् हो गया-"भगवान ने इसीलिये तो सत्य के साथ अहिंसा (करुणा) का अनुबन्ध किया है। अप्रिय एवं कठोर सत्य भी साधक के लिए बज्यं है ! धन्य है परम कारुणिक प्रभु को।" वन्दना के साथ महाशतक ने अपनी भूल का प्रायश्चित किया।
श्रावक महाशतक ने अन्त में संलेषना - संथारा करके समाधि-मृत्यु प्राप्त की।
___ अन्य उपासक इन श्रमणोपासकों के अतिरिक्त अनेक विशिष्ट श्रावकों का वर्णन आगम व उत्तरवर्ती साहित्य में मिलता है, जिन्होंने भगवान महावीर से व्रत ग्रहण कर तथा तत्व-ज्ञान प्राप्त कर जीवन को उच्च बनाया।
दस उपासकों में नन्दिनीपिता और सालिहीपिता नाम के धावकों की चर्चा भी है । ये दोनों ही श्रावस्ती के धनाढ्य गृहस्थ थे। इनमें प्रत्येक के पास बारह कोटि हिरण्य एवं चालीस हजार गायें थीं। भगवान् महावीर जब श्रावस्ती में पधारे तो दोनों ने ही उपदेश सुनकर श्रावक धर्म स्वीकार किया, असीम भोगाकांक्षाजों को सीमित किया और जीवन को समता, सामायिक एवं पोषष आदि की साधना में लगाया।
दस प्रमुख श्रावकों के नाम संभवतः इसलिये भी प्रसिद्ध हैं कि ये सब अपनेअपने क्षेत्र के प्रमुख कोट्याधीश एवं समर्थ व्यक्ति थे । समृद्धि में समता का मार्ग अपनाना, यौवन में ब्रह्मचर्य स्वीकार करना जैसा महत्वपूर्ण माना गया है, उसी दृष्टि से हमने भगवान महावीर द्वारा प्रस्तुत श्रावक धर्म को-"भोग के सागर में त्याग का सेतु" शीर्षक दिया है।"
चुल्लनीपिता, सुरादेव, चुल्लशतक एवं सद्दालपुत्र की देव-परीक्षा की घटनाएं यह भी संकेत देती हैं कि जब तक मन में वाह्य पदार्थ के प्रति आसक्ति, मूर्या और ममत्व-बुद्धि रहती है, तब तक साधक अपने पथ पर अविचल तथा अस्खलित गति से नहीं बढ़ पाता । ममत्व-बुद्धि तथा सूक्ष्म-आसक्ति के कारण कमी भी प्रसंग पाकर आत्मा का पतन हो सकता है, अत: साधक को मन में रही मूळ, एवं ममत्व बुद्धि को मिटाने का प्रयत्न करना चाहिये। १ उपासक दशा, अध्ययन ८ । २ तेईसवां वर्ष, वि. पृ. ४८६ ।